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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ जैन तत्त्व मीमांसा की इसलिये उसका कर्मो के साथ एकत्वबुद्धि हो रही हैं । " जैसे गजराज नाज घास गरासकरि भक्षणस्वभाव नहीं भिन्न रस लिया है। जैसे मतवारी नहीं जानत शिखरणा स्वाद गऊ में मगन कहै गऊदूधपियो है । जैसे मिथ्यामतिजा व ज्ञानरूपी है सदीव पग्यो पाप पुष सोसहज सुन्नहियो है ! चेतन अचेतन दुहुँको मिश्रपिण्ड लखि एकमेक मानें न विवेक कछु कियो है । समयसार नाटक कर्ताकर्म क्रियाद्वार । 1 यह जो कर्मोंके साथ एकत्वबुद्धि है वह सद्भूतव्यवहारनय के द्वारा दूर हो जाती है यही तो परमार्थ है इसीके लिये ही तो हम पुरुषार्थ करते हैं। अतः व्यवहार का लोप करने से न तो वस्तु स्वरूपकी प्राप्ति ही होगी और न परमार्थकी ही सिद्धि होगी । इसलिये केवल निश्चय नयही परमार्थभूत हैं और व्यवहारनय अपरमार्थभूत है ऐसा समझना भ्रम है । व्यवहार निरपेक्ष केवल निश्चय नय भी अपरमार्थभूत ही है। क्योंकि उससे वस्तु स्वरूप का बोध नहीं होता इसलिये व्यवहार नय की शरण लेनी पड़ती है । आचार्य इस विषय में शंका उठा कर समाधान करते हैं कि जो केवल निश्चयनयसे ही विवादका परिहार और वस्तुका विश्वार हो सकता है ऐसा जोमानते हैं सोगलत है शंका" ननु च समीहितसिद्धिः किलचैकस्मान्नयात्कथं न स्यात् विप्रतिपत्तिनिरासो वस्तुविचारश्च निश्चयादिति चेत् ६४१ पंचाध्यायी || अर्थ- अपने अभीष्टको सिद्धि एक ही निश्चय नयसे क्यों नहीं हो जाती है। विवादका परिहार और वस्तुका विचार भी निश्चयजय से हो जायगा इसलिये केवल निश्चयनय का हो मात लेना ठीक है। आचार्य कहते हैं यह ठीक नहीं है । For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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