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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममीक्षा ३२३ ...... murn. marrrrrrrrr.rr..~ यह ए : प्रश्न है। जिसका उत्तर नियसमार गाथा १-३ में उपादान की मुख्यतासे दिया गया है वहां बतलाया गया है कि कर्मों से मुक्त हुआ आत्मा लोक.न्त तक ही जाता है । यद्यपि भूल गाथा में कारण निर्देश नहीं किया है। पर समर्थ उपादान को दृष्टि से विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि उसकी योग्यता ही उतनी है इस लये वे लोकान्तक तक ही गमन करते हैं । उससे आगे नहीं जाते । जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धि के देवामें सातवें नरक तक जानेकी शक्ति मानी गई है परन्तु उनके समर्थ उपादान की व्यक्ति अपने नियमित क्षेत्र तक ही होती है इसी प्रकार प्रत्येक जीवका ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला माना गया है परन्तु जिमकाल में जिस जावका जितने क्षेत्रतक गमन करने की योग्यता होती है उस कालमें उस जीवका वहीं तक गमन होता है । उस क्षेत्र को उल्लङ्घन कर उसका गमन नहीं होता। यह वस्तुस्थिति है इसके रहते हुए भी इस प्रश्नका निमित्त की मुख्यता से व्यवद्वार न्यसे तत्वार्थ सूत्र में यह समाधान किया है कि लोकके आगे धर्मास्तिकाय द्रव्य नहीं है इमलिये मुक्त जीव का उससे ऊपर गमन नहीं होता पंडितजीने योग्यता की पुष्टि करने में कितना निराधार मनकल्पित कथन किया है इसका पाठक गण स्वयं विचार करें। नियमसार की गाथा १८३ में कारणका निर्देश नहीं किया जिससे आप अपनी कल्पना से यह अर्थ निकालते हैं कि मुक्त जीवकी योग्यता ही इतनी ही है कि वे लाकान्त के आगे गमन नहीं कर सकते । यदि मुक्त जीव में लोकान्त तक ही गमन करनेकी योग्यता है इमसे अधिक नहीं तो फिर आचार्योंने जीवको लोकान्त तक गमन स्वभाव वाला क्यों नहीं कहा ? ऊर्ध्वस्वभाव वाला क्यों कहा ? याग्यता के अनुसार हा कथन करना था जिससे यह सूत्र For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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