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आवश्यक निवेदन अनन्तधर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयी मूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् । मंसारका एक नाम दुनिया है । यह द्विनया शब्दका अपभ्रंश है । इसका अर्थ होता है कि जितना लौकिक पारमार्थिक व्यवहार अथवा कथन है वह सब दो नय-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनो नयोंकी अपेक्षा से ही चलता है । एक नयका आश्रयकर जो चलता है वह अपना अभीष्ट सिद्ध नही कर सक्ता
सर्वज्ञकी वाणी भी यही कहती है कि--जितने पदार्थ हैं वे सव एक धर्म वाले नहीं हैं उनमें अनेक-बहुतसे अन्त-धर्म रहते हैं। उनका वर्णन भी अनेक प्रकार से हो सकता है परन्तु वचनमें एक साथ सव धर्मोके वर्णन करनेकी शक्ति न होनेसे एक धर्मका ही वर्णन एक समय में हो सकता है। वचन से जिस एक धर्मका वर्णन किया जारहा है उसके सिवा अन्य और भी बहुत से धर्म इस पदार्थ में है इस अभिप्रायको प्रगट करनेके लिये 'स्याद्' शब्दका प्रयोग किया जाता है । स्थाद् शब्दके अनेक अर्थ संस्कृत भाषामें होते हैं परन्तु अन्य अर्थका ग्रहण न कर यहां 'किसी अपेक्षा से' अथवा 'वर्णनीय धर्मकी मुख्यतासे अन्य धर्मोंकी गौणता रखकर यह कहना है' यह अर्थ लिया जाता है। इसी अर्थको कहनेवाली पद्धतिका नाम स्याद्वाद वाणी है। जैनाचार्योंने इसी पद्धतिका आश्रय लेकर तत्त्व विवेचन किया है। 'सर्वथा' पदार्थ नित्य ही है अथवा सर्वथा अनित्य ही है अथवा अमुक गुण से ही सहित है ऐसा मानना तत्त्वदृष्टि से बाधित है। इसका कारण यह है कि-एक पदार्थ में अपना सद्भाव रहता है और दूसरे पदार्थका असद्भाव--अभाव रहता ही है इस तरह
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