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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्व मीमांसा की किया उसने मोक्ष के पावनेका ही लोप किया । यदि व्यवहार का लाप करने से ही परमार्थकी सिद्धि होती तो आचार्य व्यवहारसाधनका उपदेश ही नहीं देते । पंडित फूलचन्दजी का जो यह कहना है किा व्यवहारका खोप होजायगा इसभ्रांतिवश परमार्थसे दूर रहकर व्यवहारको ही परमार्थ रूप समझनेकी चेष्टा करना उचित नहीं है। यह सर्वथा गलत है क्योंकि प्रथम तो जेनागमको समझनेवाला विद्वान कोई भी ज्यवहार को परमार्थ स्वरूप समझता ही नहीं क्योंकि परमार्थ निविकल्प एक शुद्ध चैतन्य चमत्कारमात्र है सो अनुभवगम्य है और वचनातीत है इसलिये व्यवहारतो क्या निश्चयनव और द्रव्या अतप्रमाण भी परमार्थस्वरूप नहीं है क्योंकि ये सब सविकल्पक है और जो सविकल्पक है वह परमार्थस्वरूप नहीं है यद्यपि मह वास्तविक बात है । तथापि परमार्थका ज्ञान अतप्रमाण और नखों के द्वारा ही होता है इसलिये काचत भूतप्रमाण और नय यह भी परमार्थस्वरूप कई है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि भुत को जामनेवाला भी श्रुतकेवली है तथा व्यवहारके विना परमार्थका ज्ञान होना अशक्य है ऐसा ऊपर दृष्टान्तद्वारा कहा जाचुका है. इसलिये ! पंडितजी परमार्थकी सिद्धि व्यवहारका लोप करने से नहीं होगी व्यवहारके साधन से ही परमार्थकी सिद्धि होगी अतः व्यवहारका साधन करनेवालों को परमार्थसे दूर रहना आप मानते है यह आप की भ्रान्ति है क्योंकि पूर्वाचार्यों में ऐसा कही पर भी नहीं कहाकि व्यवहारका लोप करने से परमार्थकी सिद्धि होगी। अन्य व्यवहार के द्वारा परमार्थ की सिद्धि नहीं होगी प्रत्युत उन्होंने तो यह कहा है कि परमार्थकी सिखि होगी तो व्यवहार के द्वारा ही होगी अन्य प्रकारसे नहीं होगी क्योंकि व्यवहारके विना परमार्थका विमा प्रशस्य है। इसलिये व्यवहार से परमार्थ की For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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