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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तारा का। नीय जानना यातें व्यवहार को परमार्थ का कहनहारा मानि स्थापन योग्य है। अथवा ब्राह्मणको म्लेच्छ न होना इस वचन ते व्यव हार नयकू सर्वथा उपादेय मानकर अगीकार करना । इस पंथन से व्यवहार नय उपादेय है जंगाकार करने योग्य है इसके आगे व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक है ऐसा निरूपण करें है । "जोहि सुदेश भिगच्छदि अप्पामि तु केवलं सुद्धं । तं सुदके व लिमिसियो भांति लोगप्पदीवयरा, ६ “जोसुदशायं सव्वं जायदि सुद केवलिं तमाहुजिया । गाणं अप्पासच्वं जम्लामुदकेवलीतला,, १० आत्मख्यातिः यः श्रुतेन केवलंशुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत्परमार्थो यः श्रुतज्ञानं सर्व जानाति स त केवल तिव्यवहारः । तदत्रसर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा, न तावद्नात्मा समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थ, पंचतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः ततोगत्यंतराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायात्यातः श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् । एवं सति यः श्रात्मा न जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति स तु परमार्थ एव । एवं ज्ञानज्ञा निनोभेदेन व्यपदिश्यता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रएव प्रतिपद्यत न किचिदप्यतिरिक्त अथच यः श्रुतेन केवलशुद्धमात्मानं जानाति स श्रतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रतज्ञानं सर्व जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारपरमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति । हिंदी टीका - जो श्रुतकरि केवल शुद्धआत्माकू जाने है सो श्रुतकेवली है यह तो प्रथम परमार्थ है । वहुरि जो श्रुतज्ञान सर्व: जाने हैं सो श्रुतकेबली है । यह व्यवहार है । सो यहां परीक्षा दोय पक्षकार कहे हैं। जो यह कहा हुवा सर्व हीं ज्ञान, अनात्मा For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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