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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० जैन तत्त्व मीमांसा की ormmmmmmxm.ar सदा घी ही । यहां पर यह दृष्टांत धी रूप पर्याय को द्रव्य मान. कर दिया है इसलिये घी रूप पर्यायके बदलने पर वह बदली जाता है यह कथन प्रकृत में लागू नहीं होता । यह एक उदाहरण है इसी प्रकार कल्पित किये गये जितने भी सम्बन्ध है उन सबके विषय में इसी दृष्टिकोण से विचार कर लेना चाहिये । स्पष्ट है कि माने गये सम्बन्धों में एक मात्र तादात्म्य सम्बन्ध परमार्थ भूत है । इसके सिवाय निमित्तादिकी दृष्टि से अन्य जितने भी मम्बन्ध कस्पित किये गये है उन्हें उपचरित अतएव अपरमार्थ भूत ही जानना चाहिये" -पृष्ठ १७ जैन तत्त्व मीमांसा यह भी आपका कहना एकान्तवाद से दूषित है इसलिये मिथ्या है प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है और उसका परिणमन भी स्वतंत्र है यह बात जीव और पुद्गल द्रव्य में सर्वथा एकान्त रूपसे लागू नहीं होती । क्यों कि इन दो द्रव्यों में बन्ध बन्धक भाव अनादि कालसे स्वसिद्ध है। इन दो द्रव्यों में एक वैमा - विकी स्वभाव रूप शक्ति है । इम शक्ति के कारण जाव और पुद्गल कोका अनादि काल से मंयोग संवन्ध हो रहा है इस कारण दोनों द्रव्य एक क्षेत्रात्र गाही होकर अनादि कालसे दोनों द्रव्य परतंत्र हो रहे हैं । जब तक दोनोंका परस्पर में बन्धन है तब तक दोनों ही परतंत्र हैं पराधीन है ! वह उसको नहीं छोडता, वह उस को नहीं छोडता । ककि मम्वन्ध से यह जीव अनादि कालमे निगोद में परतंत्र हुआ पड़ा है और अनन्त काल तक आगे भी इसी प्रकार पडा रहेगा। स्वतंत्र हो तो कर्मोंक सम्बन्ध से किसलिये दुखी रहे ? चारो गतियों में किसलिये चक्र लगता फिरे ? कर्मों के सम्बन्धसे यह जीव मंमार में अनेक प्रकारके दुख भोग है है यह बात प्रत्यक्ष दृष्टिगावर हो रही है । इसको सर्वथा काल्पनिक असत्य कसे कहा जाय ? यदि जीव द्रव्य सर्वथा स्वतंत्र है तो पण्डितजी आपकी आत्मा भी मर्वथा स्वतंत्र होनी For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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