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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा व्यवहार की अपेक्षासे वह कथन है । जब वह श्रद्धामूलक अस द्भूत व्यवहार नयका कथन नहीं है तव कह कथन अश्रद्धामूलक कुज्ञान नयका ही समझा जायगा । इस हालतमें शरीरादि मेरा है धन धान्यादिक मेरे हैं ऐसी मान्यताको सुज्ञान नय असद्भूत व्यवहार नहीं कहा जासकता है । सुज्ञान असद्भूत व्यवहारन यका विषय तो आत्मामें पर निमित्तसे होनेवाले राग द्वेष परिणाम है, वे आत्माहीके हैं। उसीका प्रतिपादन करना सुज्ञान असद्भूत व्यवहारनयका विषय है । परन्तु शरारादिक का पुत्रपात्रादिकको वन धान्यादिक सम्पत्तिको अपना समझना मानना यह कुझान असद्भूतव्यवहारनयका विषय है । इसलिये वह मिथ्या है इस नयसे परमार्थभूत अर्थकी सिद्धि नहीं होती। यहा पर इस वा को भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि व्यवहारनयके आचार्योंने दो भेद किये हैं । एक सद्भूतव्यवहारनय और दूसरा असद्भूतव्यवहारनय अतः सद्भूतव्यवहार नयक विषयमें तो किसीका मतभेद नहीं है क्योंकि इस नयके द्वारा सद्पदार्थमें ही व्यवहार होता है । तो भी आचार्यों ने इसको भी अभूतार्थ जिस अपेक्षा से कहा है उस अपेक्षा का सविस्तर स्पष्टीकरण ऊपर किया जाचुका है । तथा असद्भूतव्यवहारनय का भो उदाहरण पूर्वक एवं हेतु पूर्वक स्पष्टीकरण फल सहित सविस्तर किया गया है। जिससे असद्भूतव्यवहारनयका क्या विषय है यह बात अच्छी तरह समझमें आजाती है । तथा लौकिक व्यवहारनयाभांसोंका भी उपरमें कुछ नयाभासोंका उदाहरग पूर्वक स्पष्टीकरण किया गया है। प्राचार्योन खुलासा करनेमें कोई कमी नहीं रक्खा है, तो भी नयविभागको नहीं समझनेवाले सज्जन असद्भूतव्यवहारनयक विषयमे गडवडा जाते हैं । इसका कारण यह है कि लौकिक व्यवहारार्थ जो नयाभासाकी प्रवृत्ति For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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