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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममीक्षा १०५ समझ कर ग्रहण नहीं करेगा। किन्तु जो नय प्रमाणाधीन नहीं है ant नय पर पदार्थों स्वपदार्थकी कल्पना करता है इसलिये वह कुनय है | मारांश यह है कि जो मिध्यादृष्टि वरिश्रात्मा है वहां पर जा ज्ञानावरणादि यकमका अथवा औदारिकादि शरीररूपी नो कमका तथा घटपटादिका कर्ता होता है । इसका कारण यह है कि उसका ज्ञान मिध्याज्ञान है इसलिये उसके ज्ञानमें पदार्थ विपरीत ही झलकता है अतः जैसा उसके ज्ञानमें झलकता है बसा है। वह मानता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि स्वानुभूतिसे शून्य मिध्यादृष्टि वहिरात्मा नोकर्मवाह्यकर्म धनधान्यादिक पदार्थोंमें अबुद्धि रखता है यह कुज्ञानका विषय है । और कुज्ञान के अंश का नाम ही कुनय तथा सुज्ञानके अंशका नाम ही सुनय है । यह बात असिद्ध नहीं है इसवातको स्वीकार करते हुये भी पंडित फूलचन्दजी ने आचार्य के अभिप्रायोंको छिपाकर कुनयांके उदाहरणोंद्वारा सुनयोंको कुनय सिद्ध करनेकी चेष्टा की है । एक तरफ तो आप यह कहते हैं कि "त थैंकरोंका जो उपदेश चारों श्रनुयोग में संकलित है उसे वचनव्यवहारकी दृष्टिसे कितने ही भागों में विभक्त किया जा सकता है ? विविधप्रमाणोंसे प्रकाशमं विचार करने पर विदित होता है कि उसे हम मुख्यरूपसे दो भागों में विभक्त कर सकते हैं उपचरित कथन और अनुपचरित कथन | जिस कथनका प्रतिपाद्य अर्थ ( वस्तुस्वरूप तो असत्यार्थ है ( जो कहा गया है वैसा नहीं है ) परन्तु उससे परमाथंभूत अर्थ ( वस्तुस्वरूप का ज्ञान हो जाता है, उसे उपचरित कथन कहते हैं। और जिसकथनसे जो पदार्थ जैसा है उसका उसी रूपमें ज्ञान होता है उसे अनुपचारित कथन कहते हैं" । इस वक्तव्यका तात्पर्य यह है कि अनुपचरित कथन है वह निश्चयस्वरूप है और उपचरित कथन है वह व्यवहारस्वरूप हैं For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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