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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा "इत्यादिकाश्च बहवः सन्ति यथालक्षणनयाभासाः। तेषामयमुद्द शो भवति विलक्ष्यो नयान्नयामासाः ५८७ अर्थ-कुछ नयामामों का उपर उल्लेख किया गया है उनके मिवाय और भी बहुतसे नयाभास हैं जोकि वैसेही लक्षणों वाले हैं। उन सब नयाभासोंका यह उद्देश्य आशय नयसे सर्वथा विरुद्ध हैं इसलिये वे नयाभास कहे जाते है । अर्थात् नयों का जो स्वरूप कहागया है उससे नयाभासोंका स्वरूप विरुद्ध है। इसलिये जो समीचीन नय है, उसे नय कहते हैं और मिथ्यानयको नयाभास कहते हैं। पं० फूलचन्दजीने उपरोक्त मयाभासोंका उदाहरण देकर समोचीन व्यवहार नयोंके मिथ्या सिद्ध करनेकी चेष्टा की है किन्तु विद्वानों के सामने वह बात टिक नहीं सकती नयचक्रक प्रमाण अमद्भूतव्यवहारनयका पंचाध्यायीके अनुरूप ही है किन्तु "अण्णेसिं अण्णगुणो भणइ असम्भूद,, ___ इमगाथावा अर्थ आपने कर्म नोकर्म तथा घट पटादिका कती मानना श्रमद्भूतव्यवहारनय का विषय बतलाया है सो ठीक नहीं है क्योकि अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्य कर्ता माननेवाला नय नहीं है वह नयाभास है यह वात ऊपरमें बतलाई जाचुकी है। इमलिये "अण्णसि अण्णगुणो भणई,, इसका अर्थ यह नहीं है क अन्यद्रव्यमें अन्यद्रव्यके गुण आरोप करना असद्भुत व्यवहारनय है । किन्तु अन्य व्यके निमित्तसे होनेवाले अपने में वैभाविक परिणामोंको अपना कहना अर्थात क्रोधादिक कर्मोके निमि से होनेवाले आत्माक क्रोधादि वैभाविक भावोंको आत्माका कहना यह असद्भूतव्यवहारनयका विषय है। यह क्रोधादिभाव मामाहीम हात ह, जडमें नहीं इसलिये य तद्गुणारोपही है For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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