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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध शरीर में निमित्तता और जीव में नैमित्तिकता का ही सूचक होगा। वह सम्बन्ध दोनों में एकत्व बुद्धि का जनक नहीं है क्योंकि जीव अपने स्वरूप से ही परिणमन करता है निमित्त कारण के निमित्त से उसमें पर स्वरूपता नहीं पाती इसलिये मनुष्यादि शरीर में जीव व्यवहार करना नयाभास है। दूसरा नयाभास "अपरोपि नयाभासो भवति यथा मूर्तस्य तस्य सतः ! कर्ता भोक्ता जीवः स्यादपि नोकर्म कर्मकृते" ५७२ पं० ___ अर्थ--आहारवर्गणा, भाषावर्गणा, तैजसवर्गणा, मनोवर्गणा ये चार वर्गणायें जब आत्मा से सम्बन्धित होती हैं तब वे नो कर्म के नाम से कहो जाता है। और कार्माण वर्गणा जब मात्मा से सम्बन्धित होकर कर्मरूप ( ज्ञानावरणादिरूप) परिणत होती हैं तब वह कर्म के नाम से कही जाती है। ये कर्म और नाकर्म पुद्गल की पर्याय है इसलिये ये मूर्त हैं। उन मूर्त कर्माका नो कर्मो का जीव कर्ता भोक्ता है ऐसा कहना यह दूसरा नयाभास है । अर्थात् जीव अमूर्त स्वरूप वाला है इसलिये वह अपने ज्ञानादि भावोंका कर्ता भोक्ता है । उसको ज्ञानादि भावों का कर्ता भोक्ता कहना यह भी व्यवहार ही है किन्तु यह व्यवहार असद्भूत नहीं है। क्योंकि जीव के ही ज्ञानादि गुण जीव ही में आरोपित किये गये हैं। परन्तु जो जीव को मूर्त पदार्थों का कर्ता भोक्ता व्यवहारनय से बलाते हैं इस विषय में आचार्य कहते हैं कि वह नय नय नही किन्तु नयाभ स है।। "नाभासत्वमसिद्धं स्यादसिद्धान्तो नयस्वास्य । ससदनेकत्वे सति किल गुणसंक्रांतिः कुतः प्रमाणाद्धा" ५७३ पंचाध्यायी For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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