SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - समीक्षा जाय। और उन नयाभासों को देखने से शुद्ध नयों का परिज्ञान हो जाय तो न्याभासों के भ्रम में न पड़े। “अस्ति व्यवहारः किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति स जीवस्तप्यतोनन्यत्वात् ॥ ५६७ पंचाध्यायी अर्थ--- वृद्धि का अभाव होने से लोकों का यह मनुष्यादि शरीर है वह जीव है क्योंकि वह जीव से अभिन्न है । " सोयं व्यवहारः स्यादव्यवहारो यथापसिद्धान्तात् । अप्यपसिद्धान्तत्वं नासिद्धं स्यादनेकधर्मिकत्वात् " || ५६८ पंचाध्यायी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Audio w For Private And Personal Use Only Ca अर्थ -- शरीर में जीव का व्यवहार जो लोक में होता है वह व्यवहार अयोग्य व्यवहार है । कारण वह सिद्धान्त से ति है। सिद्धान्त विरुद्धना इस व्यवहार में असिद्ध नहीं है । किन्तु शरीर और जीव को भिन्न भिन्न धर्मी होने से प्रसिद्ध ही हे अर्थात् शरीर पुद्गल द्रव्य भिन्न पदार्थ है, और जीव द्रव्य free पदार्थ है फिर भी जो लोग शरीर में जोव व्यवहार करते है वह वश्य सिद्धान्त विरुद्ध है । "नाशंक्यं कारणमिदमेक क्षेत्रावगाहिमात्रं यत् । सर्वद्रव्येषु यतस्तथावगाहाद्भवेदतिव्याप्तिः || ५६६ पंचाध्यायी अर्थ- शरीर और जीव दोनों का एक क्षेत्र में अवगाहन-स्थिति है इस कारण लोक में जैसा व्यवहार होता है ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये क्योंकि एक क्षेत्र में तो सम्पूर्ण द्रव्यों का अवगाहन हो रहा है। यदि एक क्षेत्र में अवगाहन होना ही एकता
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy