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________________ जैन प्रमाणवाद और उसमें अनुमानका स्थान : ७१ हेतवः' कह कर प्रमाणोंको हेतु कहा है । स्थानांगसूत्रमें एक दूसरी जगह व्यवसायके तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणोंका भी कथन किया है । सम्भव है सिद्धसेन और हरिभद्रके तीन प्रमाणोंकी मान्यताका आधार यही स्थानांग हो । श्री दलसुख मालवणियाका मन्तव्य है कि उपर्युक्त चार प्रमाण नैयायिकादिसम्मत और तीन प्रमाण सांख्यादिस्वीकृत परम्परामूलक हों तो आश्चर्य नहीं । इस प्रकार भगवतीसूत्र और स्थानाङ्गमें चार और तीन प्रमाणोंका उल्लेख है, जो लोकानुसरणका सूचक है । पर आगमोंमें मूलतः ज्ञान-मीमांसा ही प्रस्तुत है । षट्खण्डागम में विस्तृत ज्ञान-मीमांसा दी गयी है । वहाँ तीन प्रकारके मिथ्याज्ञानों और पाँच प्रकारके सम्यग्ज्ञानोंका निरूपण किया गया है तथा उन्हें वस्तुपरिच्छेदक बताया गया है । यद्यपि वहाँ प्रमाण और प्रमाणाभास शब्द अथवा उस रूपमें विभाजन दृष्टिगोचर नहीं होता । पर एक वर्गके ज्ञानोंको सम्यक् और दूसरे वर्ग के ज्ञानोंको मिथ्या प्रतिपादित करनेसे अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक् कहे गये हैं वे सम्यक् परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जि.हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या ज्ञान कराने प्रमाण ( प्रमाणाभास ) इष्ट हैं। हमारे इस कथन की संपुष्टि तत्त्वार्थ सूत्रकारके निम्न प्रतिपादन से भी होती हैं मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे । मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान सम्यक्ज्ञान हैं और वे प्रमाण हैं । आशय यह कि षट्खण्डागममें प्रमाण और प्रमाणाभासरूपसे ज्ञानोंका १. 'तिविहे ववसाय पण्णत्ते --तं जहा पच्चक्खे पच्चतिते आणुगमिए ।' -स्था० सू० १८५ । २. न्यायाब० का० ८ । ३. अने० ज० टी० पृ० १४२, २१५ । ४. आगमयुगका जैनदर्शन पृ० १३६ - १३८ । ५. णाणाणुवादेण अत्थि मदि - अण्णाणी सुद-अण्णाणी विभंग णाणी आभिणिवाहिय णाणी सुदाणी ओहि णाणां मणपज्जव णाणी केवलणाणी चेदि । ( ज्ञानको अपेक्षा मति अवधिज्ञान, मनः पर्यज्ञान मिथ्याज्ञान और अज्ञान, क्षुत- अज्ञान, विभंगज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, यज्ञान और केवलज्ञान ये आठ ज्ञान हैं। इनमें आदिके तीन अन्तिम पांच ज्ञान सम्यग्ज्ञान हैं। ) — भूतबली - पुप्पदन्त, षट्ख० १११११५ । ६, ७. गृद्धपिच्छ, त० सू० १९,१० ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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