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________________ ६८ : जैन तर्कशानमें अनुमान-विचार 'स्वनिर्णय' होता अवश्य है किन्तु वह प्रमाण-अप्रमाण सभी ज्ञानोंका सामान्य धर्म है। अतः उसे प्रमाण-लक्षण में निविष्ट नहीं किया जा सकता। कोई ज्ञान ऐसा नहीं जो स्वसंवेदी न हो। अतएव हमने उसे प्रमाणका लक्षण नहीं कहा । वृद्धोंने जो उसे प्रमाण लक्षण माना है वह केवल परीक्षा अथवा स्वरूप प्रदर्शनके लिए ही । हेमचन्द्रने प्रमाणलक्षणमें 'अपूर्व' पदको भी अनावश्यक बतलाया है । गृहीष्यमाण अर्थ के ग्राहक ज्ञानकी तरह गृहीत अर्थ के ग्राही ज्ञानको भी प्रमाण मानने में वे कोई बाधा नहीं देखते। यह ध्यान देने योग्य है कि श्वेताम्बर परम्पराके जैन ताकिकोंने प्रमाणलक्षणमें 'अपूर्व' विशेषण स्वीकार नहीं किया। धर्मभूषण : अभिनव धर्म भूषणने विद्यानन्दकी तरह सम्यग्ज्ञानको ही प्रमाणका लक्षण प्रतिपादन किया है । पर उन्होंने उसका समर्थन एवं दोष-परिहार माणिक्यनन्दिके 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' इस प्रमाणलक्षण के आलोकमें ही किया है। तथ्य यह है कि वे समन्तभद्र के लक्षण को भी स्मरण रखते हैं। इस तरह धर्मभूषणने प्रमाणके लक्षणको सविकल्पक, अग्रहीतग्राही एवं स्वार्थव्यवसायात्मक सिद्ध किया है तथा धर्मकोति, प्रभाकर, भाट्ट और नैयायिकोंके प्रमाणलक्षणोंकी समालोचना की है। निष्कर्ष : ___ उपर्युक्त विवेचनसे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैन परम्परामें सम्यक्ज्ञानको प्रमाण माना है और उसे स्वपरव्यवसायात्मक बतलाया गया है। कुछ ग्रन्थकार उसमें 'अपूर्व' विशेषणका भी निवेश करके उसे अग्रहीतग्राही प्रकट करते हैं। उनका मत है कि जितने भी प्रमाण हैं वे सब नये ( अनिश्चित एवं समारोपित ) विषयको ग्रहण करके अपनी विशेषता स्थापित करते हैं। स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम ये वस्तुके उन अंशोंको ग्रहण करते हैं जो पूर्वज्ञानोंसे अग्रहीत रहते हैं। उदाहरणार्थ अनुभवके पश्चात् होने वाली स्मृति भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालोंमें व्याप्त वस्तुके अतीत अंशको विषय करती है जब कि अनुभव वर्तमान वस्त्वंशको । स्मरण रहे कि अंशके साथ अंशी अनुस्यूत रहता है। यही प्रत्यभिज्ञा आदिको स्थिति है । अतः ये १. गृहीष्यमाणग्राहिण इव गृहोतग्राहिणोऽपि नाप्रामाण्यम् । -प्र० मी०, १११४४, पृ० ४ । २. सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् । -न्या० दी. पृष्ठ है। ३. शानं तु स्वपरावभासकं प्रदीपादिवत्प्रतीतम् । -वही. पृष्ठ १२, १११३ । ४. वही, पृष्ठ १८-२२ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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