SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन प्रमाण वाद और उसमें अनुमानका स्थान : ६५ स्मरणीय है कि वात्स्यायन' और जयन्तभट्टने भी ज्ञानको प्रमाण स्वीकार किया है तथा उसका फल हान, उपादान और उपेक्षाबुद्धि बतलाया है। पर यह सत्य है कि न्यायदर्शनमें मुख्यतया उपलब्धिसाधनरूपमें सन्निकर्ष या कारकसाकल्यको ही प्रमाण माना गया है और ज्ञानको सभीने एक मतसे अस्वसंवेदी प्रतिपादन किया है। अकलङ्क: अकलंकने समन्तभद्रोपज्ञ उक्त प्रमाणलक्षण और पूज्यपादकी प्रमाणमीमांसाको मान्य किया है। पर सिद्धसेन द्वारा प्रमाणलक्षणमें दिया गया 'बाधविवजित' विशेषण उन्हें स्वीकार्य नहीं है। उसके स्थानपर उन्होंने एक दूसरा ही विशेषण दिया है जो न्यायदर्शनके प्रत्यक्षलक्षणमें निहित है, पर प्रमाणसामान्यलक्षणवादियों और जैन ताकिकोंके लिए वह नया है। वह विशेषण है-व्यवसायात्मक' । अकलंकका मत है कि चाहे प्रत्यक्ष हो और चाहे अन्य प्रमाण । प्रमाणमात्रको व्यवसायात्मक होना चाहिए। कोई भी ज्ञान हो वह निर्विकल्पक, कल्पनापोढ या अव्यपदेश्य नहीं हो सकता। यह सम्भव ही नहीं कि अर्थका ज्ञान हो और विकल्प न उठे। ज्ञान तो विकल्पात्मक ही होता है । इस प्रकार इस विशेषण द्वारा अकलंकने जहाँ बौद्धदर्शनके निर्विकल्पक प्रत्यक्षकी मीमांसा की है वहाँ न्यायदर्शनमें मान्य अव्यपदेश्य ( अविकल्पक ) प्रत्यक्षज्ञानकी भी समीक्षा की है। अकलंकने समन्तभद्र के प्रमाणलक्षणगत 'स्व' और 'पर' पदके स्थानमें क्रमशः 'आत्मा' और 'अर्थ' पदोंका समावेश किया है तथा 'अवभासक' पदकी जगह 'ग्राहक' पद रखा है। पर वास्तवमें अर्थको दृष्टिसे इस परिवर्तनमें कोई अन्तर नहीं-मात्र शब्दोंका भेद है। अकलंकदेवने प्रमाणके अन्य लक्षण भी भिन्न-भिन्न १. यदा सन्निकर्पस्तदा शानं प्रमितिः यदा शानं तदा हानोपादानापेक्षाबुद्धयः फलम् । -न्यायमा० १।१३। २. प्रमाणतायां सामग्र्यास्तज्ज्ञानं फलभिष्यते। तस्य प्रमाणभावे तु फलं हानादिबुद्धयः॥ -न्यायमं० पृष्ठ ६२ । ३. इन्द्रियार्थसन्निकषात्पन्नं शानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम् । -अक्षपाद, न्यायमू० १।१।४ । ४. यद्यपि स्थानांगसूत्र ( १८५ ) में 'व्यवसाय' पद आया है पर तर्कग्रन्थोंके लिए वह नया ही था। ५. प्रत्यक्षं कल्पनापोढं नामजात्यद्यसंयुतम् । -दिङ्नाग, प्र० स० (प्र० परि०) का० ३ । ६. इह हि द्वयी प्रत्यक्षजातिरविकल्पिका सविकल्पिका चेति । -बाचस्पति, न्यायवा० ता. टी ११११४, पृष्ठ १२५ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy