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________________ जैन प्रमाणवाद और उसमें अनुमानका स्थान : ५९ होती है, पर प्रमाणाभाससे नहीं। यही कारण है कि जब प्रमाणका विचार किया जाता है तो प्रमाणाभासकी भी मीमांसा की जाती है।' कारकतत्त्व वह है जो कार्यकी उत्पत्ति में व्याप्त होता है। अर्थात् कार्यके उत्पादक कारणोंका नाम कारक है। प्रत्येक कार्यकी निष्पत्ति दो कारणोंसे होती है-१. उपादान और २. निमित्त ( सहकारी ) । उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़ेकी उत्पत्तिमें मृत्पिण्ड उपादान है और दण्ड, चक्र, चोवर, कुम्भकार प्रभृति निमित्त है। न्यायदर्शनमें इन दो कारणोंके अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है। वह है असमवायि । पर समवायिकारणगतरूपादि और संयोगरूप होनेसे उसे अन्य सभी दर्शनोंने उक्त दोनों कारणोंसे भिन्न नहीं माना। उपेयतत्त्वके भी दो भेद हैं-१. ज्ञाप्य ( ज्ञेय ) और २. कार्य । जो ज्ञानका विषय होता है उसे ज्ञाप्य कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न है उसे कार्य : ( ख ) प्रमाणका प्रयोजन : प्रस्तुतमें हमारा प्रयोजन ज्ञापक-उपायतत्त्व-प्रमाणसे है। जहाँ तक प्रमाणके विचारका प्रश्न है, इस तथ्यको कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि विश्वके प्राणियोंकी, चाहे वे पशु-पक्षी हों, कीड़े-मकोड़े हों या मनुष्य, इष्टानिष्ट वस्तुओंके ज्ञानके लिए उसी प्रकार प्रवृत्ति (जिज्ञासा पायी जाती है जिस प्रकार खाने-पीने और भोगनेकी वस्तुओंको प्राप्त करनेकी। इससे स्पष्ट है कि प्राणियोंमें जाननेकी प्रवृत्ति ( जिज्ञासा ) स्वाभाविक है। मनुष्य इतर प्राणियोंकी अपेक्षा अधिक बुद्धिमान और विचारशील है। अत: उसके लिए आवश्यक है कि उसे इष्टानिष्ट अथवा ज्ञातव्य वस्तुओंका ज्ञान अभ्रान्त हो। प्रमाणकी जिज्ञासा मनुष्यमें सम्भवतः इसीसे जागृत हुई होगी। यही कारण है कि प्रमाणकी मीमांसा न केवल अध्यात्मप्रधान भारतके मनीषियों द्वारा ही की गयो है, अपितु विश्वके सभी विचारकों एवं दार्शनिकोंने भी की है। आचार्य माणिक्यनन्दि प्रमाणका प्रयोजन बतलाते हुए स्पष्ट लिखते हैं कि प्रमाणसे पदार्थोका १. प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः । इति वक्ष्ये तयालक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः ॥ -माक्यिनन्दि, परी० मु०, प्रतिज्ञाश्लाक १ २. वहो, प्रतिशाश्लोक १।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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