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________________ भारतीय अनुमान और पाश्चात्य तर्कशास्त्र : ५५ व्यतिरेकविधियां निरीक्षणको ही व्यवहार में लानेके कारण केवल कारणकार्यको सूचित कर सकती हैं, पर प्रमाणीकरणके लिए व्यतिरेकविधिकी आवश्यकता है । यह प्रयोगविधि है । अतः प्रयोगात्मकरूपसे घटनाओंका विश्लेषण कर कार्यकारणसम्बन्धका परिज्ञान किया जाता है। इसी कारण इस विधिको सर्वश्रेष्ठ विधि कहा गया है। इस विधिको परिभाषामें बताया है-“यदि किसी एक भावात्मक उदाहरणमें एक परिघटक उपस्थित हो और फिर किसी एक अभावात्मक उदाहरणमें वह परिघटक न हो तथा इस एक परिघटकके अतिरिक्त दोनों उदाहरण सभी प्रकारसे एक समान हों तो वह परिघटक, जिसमें भावात्मक और अभावात्मक उदाहरण भेद हैं, कार्य या कारण अथवा आवश्यक कारणांश होता है ।” स्पष्टीकरणके लिए यों माना जा सकता है कि दो पात्र हैं, जो एक ही समान शोशेसे निर्मित हैं, क्षेत्र और वजन भी दोनोंका समान है, दोनोंमें एक ही प्रकारकी विद्युत्घंटिकाएँ भी लगी हैं, पर दोनोंमें अन्तर इतना ही है कि प्रथम पात्र में वायु है और द्वितीयमें नहीं। अब हम देखते हैं कि उक्त अन्तरका परिणाम यह है कि प्रथम पात्र में घण्टिकाकी ध्वनि सुनाई पड़ती है पर द्वितीयमें नहीं। इससे यह निष्कर्ष निकालना सहज है कि वायु शब्द-संचारका विशेष कारणांश या आसन्न कारण है। इस व्यतिरेकविधिकी तुलना भारतीय अनुमानके अङ्ग व्यतिरेकव्याप्तिसे की जा सकती है । वास्तवमें व्यतिरेकव्याप्ति ही, जिसे जैन तार्किकोंने अन्तर्व्याप्ति या अन्यथानुपपत्ति कहा है और जिसपर हो सर्वाधिक भार दिया है, अविनाभाव सम्बन्धकी प्रतिरूप है। मिल ( Mill ) ने अपने उक्त सिद्धान्तमें अविनाभाक सम्बन्धका हो विश्लेषण किया है । सहचारी वैविध्यविधि : कुछ ऐसे स्थायी कारण हैं जिनका अभावात्मक उदाहरण प्राप्त नहीं होता, 1. If two or more instances in which the phenomenon occ urs have only one circumstance in common, while two or more instances in which it does not occur have no. thing in common save the absence of that circumstance, the circumstance in which alone the two sets of instances differ is the effect or the cause, or an indispensable part of the cause of the phenomenon. -System of logic, Longmans green and co. 1898, page 259.
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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