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________________ अनुमानका विकास-क्रम : १३ द्वष्ट अनुमानका उदाहरण-'मोर बोल रहे हैं, अतः वर्षा होगी'-भी मिथ्यानुमान है, क्योंकि पुरुष भी परिहास या आजीविकाकेलिए मोरकी बोली बोल सकता है।' इतना ही नहीं मोरके बोलने पर भी वर्षा नहीं हो सकती; क्योंकि वर्षा और मोरके बोलनेमें कोई कार्य-कारणसम्बन्ध नहीं है। वात्स्यायन' इन समस्त आपत्तियों ( व्यभिचार-शंकाओं ) का निराकरण करते हुए कहते हैं कि उक्त आपत्तियां ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त अनुमान अनुमान नहीं हैं, अनुमानाभास हैं और अमुमानाभासोंको अनुमान समझ लिया गया है। तथ्य यह है कि विशिष्ट हेतु ही विशिष्ट साध्यका अनमापक होता है । अतः अनुमानको सत्यताका आधार विशिष्ट ( साध्याविनाभावी ) हेत ही है, जो कोई नहीं। यहाँ वात्स्यायनके प्रतिपादन और उनके 'विशिष्ट हेतु' पदसे अव्यभिचारी हेतु अभिप्रेत है जो नियममे माध्यका गमक होता है । वे कहते हैं कि यह अनुमाताका हो अपराध माना जाएगा कि वह अर्थविशेषवाले अनुमेय अर्थको सामान्य अर्थ से जाननेकी इच्छा करता है, अनुमानका नहीं। इस प्रकार वात्स्यायनने अनुमानके उपादानॊके परिष्कार एवं व्याख्यामूलक विशदीकरणके साथ कितना ही नया चिन्तन प्रस्तुत किया है। ___ अनुमानके क्षेत्रमें वात्स्यायनसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य उद्योतकर का है। उन्होंने लिंगपरामर्गको अनुमान कहा है। अब तक अनुमानकी परिभाषा कारणसामग्रीपर निर्भर थी। किन्तु उन्होंने उसका स्वतन्त्र स्वरूप देकर नयी परम्परा स्थिर की। व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मताका ज्ञान ही परामर्श है। उद्योतकरको दप्टिमें लिंगलिंगिसम्बन्धस्मतिसे यक्त लिंगपरामर्श अभीष्टार्थ ( अनमेयार्थ) का अनमापक है । वे कहते हैं कि अनमान वस्तुत: उसे कहना चाहिए, जिसके अनन्तर उतरकालमें शेपार्थ (अनमेयार्थ) प्रतिपत्ति (अन मिति) हो और ऐसा केवल मिंगपगमर्ग ही है, क्योंकि उसके अनन्तर नियमतः अनुमिति उत्पन्न होती है। लिंगलिंगिमम्बन्धस्मति आदि लिंगपरामर्शसे व्यवहित हो जानेमे अनमान नहीं हैं। उद्योतकरको यह अनुमान-परिभाषा इतनी दृढ़ एवं बद्धमूल हुई कि १. न्यायभा०1१1३-, पृष्ठ ११४ । • वही, ०१३६, पृष्ठ १४, ११.। ३,४. वही० ३ ९, पृष्ठ १.५ । ५. न्यायवा० १४१५. पृष्ठ ४५ आदि । ६. वही ११५, पृष्ठ ४५ । ७. 'तस्मात् स्मृत्यनुगृहीला लिगपरामगाऽभाष्यप्रतिपादकः' - वहां, ११५, पृ ४५ । ८. यम्माल्लिगपगंमशांदनन्तरं शेपाथ प्रतिपतिरिति । तम्माल्लिंगपगमों न्याय्य इति । स्मृतिर्न प्रधानम् । किं कारणम् ? स्मृत्यनन्तरमप्रांतपतेः। -वही, ११११५, पृ० ५ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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