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________________ उपसंहार : २५९ क्योंकि कृत्तिकाका उदय हो रहा है', 'समुद्र में वृद्धि होना चाहिए अथवा कुमुदोंका विकास होना चाहिए, क्योंकि चन्द्रका उदय है' आदि हेतुओंमें पक्षधर्मत्व न होनेसे न त्रिरूपता है और न पंचरूपता। फिर भी अविनाभावके होनेसे कृत्तिकाका उदय शकटोदयका और चन्द्र का उदय समुद्रवृद्धि एवं कुमुदविकासका गमक है। हेतुका एकलक्षण ( अन्यथानुपपन्नत्व ) स्वरूप : हेतुके स्वरूपका प्रतिपादन अक्षपादसे आरम्भ होता है, ऐसा अनुसन्धानसे प्रतीत होता है। उनका वह लक्षण साधर्म्य और वैधयं दोनों दृष्टान्तोंपर आधारित है। अत एव नैयायिक चिन्तकोंने उसे द्विलक्षण, विलक्षण, चतुर्लक्षण और पंचलक्षण प्रतिपादित किया तथा उसकी व्याख्याएँ को है । वैशेषिक, बौद्ध, सांख्य आदि विचारकोंने उसे मात्र विलक्षण बतलाया है। कुछ ताकिकोंने षडलक्षण और सप्तलक्षण भी उसे कहा है, जैसा कि हम हेतुलक्षण प्रकरणमें पीछे देख आये हैं । पर जैन लेखकोंने अविनाभावको ही हेतु का प्रधान और एकलक्षण स्वीकार किया है तथा रूप्य, पांचरूप्य आदिको अव्याप्त और आतव्याप्त बतलाया है, जैसाकि ऊपर अनुमानके स्वरूपमें प्रदर्शित उदाहरणोंसे स्पष्ट है । इस अविनाभावको ही अन्यथानुपपन्नत्व अथवा अन्यथानुपपत्ति या अन्तर्व्याप्ति कहा है। स्मरण रहे कि यह अविनाभाव या अन्यथानुपपनत्व जैन लेखकोंको हो उपलब्धि है, जिसके उद्भावक आचार्य समन्तभद्र हैं, यह हम पीछे विस्तारके साथ कह आये हैं। अनुमानका अङ्ग एकमात्र व्याप्ति : ___न्याय, नैशेषिक, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध सभीने पक्षधर्मता और व्याप्ति दोनोंको अनुमानका अङ्ग माना है। परन्तु जैन ताकिकोंने केवल व्यप्तिको उसका अङ्ग बतलाया है। उनका मत है कि अनुमानमें पक्षधर्मता अनावश्यक है। 'उपरि वृष्टिरभून् अधोपूरान्यथानुपपत्तेः' आदि अनुमानोंमें हेतु पक्षधर्म नहीं है फिर भी व्याप्तिके बल वह गमक है। ‘स श्यामस्तनपुत्रत्वादितरतरपुत्रवत्' इत्यादि असद् अनुमानोंमें हेतु पक्षधर्म है किन्तु अविनाभाव न होनेसे वे अनुमापक नहीं हैं । अतः जैन चिन्तक अनुमानका अङ्ग एकमात्र व्याप्ति ( अविनाभाव ) को हो स्वीकार करते हैं, पक्षधर्मताको नहीं । पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुओंको परिकल्पना : ___ अकलङ्कदेवने कुछ ऐसे हेतुओंकी परिकल्पना की है जो उनसे पूर्व नहीं माने गये थे। उनमें मुख्यतया पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर ये तोन हेतु हैं। इन्हें किसी अन्य तार्किकने स्वीकार किया हो, यह ज्ञात नहीं । किन्तु अकलङ्कने इनकी आव
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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