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________________ इतर परम्पराओंमें अनुमाना भास-विचार : २५३ नौ साधर्म्य और नौ हो वैधर्म्य दृष्टान्ताभास कहे हैं । इनमें सन्दिग्धसाध्यान्वय सन्धिग्ध साधनान्वय, सन्दिग्धोभयान्वय और अप्रदशितान्वय ये चार साधर्म्य - दृष्टान्ताभास तथा सन्दिग्धसाध्यव्यतिरेक, सन्दिग्धसाधनव्यतिरेक, सन्दिग्धोभयव्यतिरेक और अप्रदर्शितव्यतिरेक ये चार वैधर्म्य दृष्टान्ताभास न्यायप्रवेशोक्त दृष्टान्ताभासोंसे भिन्न और नये हैं और धर्मकीर्ति उपज्ञ है, शेष दोनों दृष्टान्ताभासोंके पांच-पांच भेद न्यायप्रवेशक्ति ही हैं । नैयायिक जयन्तभट्टने' न्यायप्रवेशकी तरह उभयविध पांच-पांच दृष्टान्ताभासोंका निरूपण किया है । पर उनका यह निरूपण उनकी परम्पराके लिए सर्वथा अभिनव है, क्योंकि उनके पूर्व न्यायपरम्परा में वह दृष्टिगोचर नहीं होता । जयन्तभट्टने स्वयं कहा है कि हेत्वाभासकी तरह सूत्रकारने उनका उपदेश नहीं किया, किन्तु हमने शिष्यों के हितार्थ प्रदर्शन किया है । जयन्तभट्टने साध्यविकल, साधनविकल और उभर्याविकल इन तीन साधर्म्य - दृष्टान्ताभासों को वस्तुदीपकृत तथा अनन्वय और विपरीतान्वय इन दो को वक्ता के वचनदीपकृत बतलाया है । इसी प्रकार साध्याव्यावृत्त, साधनाव्यावृत्त और उभयाव्यावृत्त इन तीन वैधर्म्य दृष्टान्ताभासों को भी वस्तुदोषकृत तथा अव्यतिरेक और विपरीतव्यतिरेक इन दोको वक्ता के वचनदोषकृत प्रतिपादन किया है । यद्यपि न्यायप्रवेशकारने उपर्युक्त पक्षाभावादिको साधनाभास कहा है, अनुमाना भास नहीं, तथापि उन्हें सावनपदसे परार्थानुमान अभिप्रेत है और पक्ष हेतु तथा दृष्टान्त ये उसीके अवयव हैं। अतः साधनाभागसे परार्थानुमानाभास अर्थ ही न्यायप्रवेशकारको विवक्षित है। हां, स्वार्थानुमान, जिसे उन्होंने अनुमानशब्द से उल्लेखित किया है, अवश्य मात्र लिंगापेक्ष है और इसीसे उसका लक्षण देते हुए कहा है कि 'लिंगादर्थदर्शनमनुमानम् ' लिंगगे जो अनुमेयका दर्शन होता है वह अनुमान है । तथा 'हेत्वाभासपूर्वकं ज्ञानमनुमानामासम् ' - हेत्वाभासपूर्वक होनेवाला ज्ञान अनुमानाभास है। यहां भी अनुमानाभाससे न्यायप्रवेशकारको स्वार्थानुमानाभास इष्ट है । तात्पर्य यह कि स्वार्थानुमानविचारमें मात्र हेत्वाभासोंका विचार प्रयोजक है । पर परार्थानुमानविचार में हेत्वाभासोंके अतिरिक्त पक्षाभासों और दृष्टान्ताभासों का भी विचार आवश्यक है, क्योंकि प्रानिकों को अप्रतीत अर्थका प्रतिपादन पक्ष हेतु और दृष्टान्त इन तीनोंके वचनों द्वारा किया जाता है । अतएव उनको निर्दुष्टताका ज्ञान होनेके लिए उक्त तीनों दोषोंका १. न्यायमं० पृ० १४० । २, ३ वही, पृ० १४० । ४. एषां पक्षहेतुदृष्टान्ताभासानां वचनानि साथनाभासम् । -न्यायप्र० पृ० ७ । ५. वही, पृ० ७ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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