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________________ हेतु-विमर्श : २०१ अन्यथानुपपत्तिश्चेत् पाँचरूप्येऽपि करूप्यते । षारूप्यात् पंचरूपत्वनियमो नावतिष्ठते ॥ पाँच रूपयात्मिकैवेयं नान्यथानुपपचता । पक्षधर्मत्वाद्यमावेऽपि चास्याः सरवोपपादनात् ॥ ' 'सहस्र में सौ' के न्यायानुसार उनकी रूप्य समोक्षा इसी पाँचरूप्य-समीक्षा में आ जानेसे उसका पृथक् उल्लेख करना अनावश्यक है । इसी परिप्रेक्ष्य में वादीभसिंह का भी मन्तव्य उल्लेखनीय है । वे कहते हैं कि तथोपपत्ति ही अन्यथानुपपत्ति है । और उसे ही हम अन्तर्व्याप्ति मानते तथा हेतुका स्वरूप स्वीकार करते हैं । इस अन्तर्व्याप्तिके बलपर ही हेतु साध्यका गमक होता है, बहिर्व्याप्ति या सकलव्याप्तिरूप वैरूप्य या पांचादिरूप्यके बलपर नहीं । यही कारण है कि तत्पुत्रत्वादि हेतुओंमें पक्षधर्मत्वादि रहनेपर भी अन्तर्व्याप्ति के अभावसे उनमें गमकता नहीं है । और कृत्तिकोदय हेतु पक्षधर्मत्वरहित होनेपर भी अन्तर्व्याप्ति के रहने से अपने साध्य शकटोदयका प्रसाधक होता है । इसी तरह 'अद्वैतवादीके भी प्रमाण हैं, क्योंकि वह इष्टका साधन और अनिष्टका दूषण अन्यथा नहीं कर सकता' इस अनुमानमें हेतु पक्षमें नहीं रहता फिर भी वह साध्यका अविनाभावी होनेसे गमक है । इस प्रकार वादीभसिंहने अन्यथानुपपत्तिको ही हेतुका स्वरूप प्रतिपादित किया तथा रूप्य एवं पांचरूपय आदिको अव्याप्त और अतिव्याप्त बतलाया है । ४ माणिक्यनन्दिका भी यही विचार है । जिसका साध्याविनाभाव निश्चित है उसे वे हेतु कहते हैं । और इस प्रकारका हेतु ही उनके मतसे साध्यका गमक होता है । उन्होंने अविनाभावका नियामक बौद्धोंकी तरह तदुत्पत्ति और तादात्म्यको न बतला कर सहभावनियम और क्रमभावनियमको बतलाया है, क्योंकि जिनमें तदुत्पत्ति या तादात्म्य नहीं है उनमें भी क्रमभावनियम अथवा सहभावनियमके रहने से अविनाभाव प्रतिष्ठित होता है और उसके बलपर हेतु साध्यका अनुमापक होता २६ १. न्यायवि० वि० २।१७४, पृ० २१० | २. तथोपपत्तिरेवेयमन्यथानुपपन्नता । सा च हेतोः स्वरूपं तत् ह्यन्तर्व्याप्तिश्च विद्धि नः ॥ - स्या० सि० ४-७८, ७९ । ३. किं च पक्षादिधर्मत्वेऽप्यन्तर्व्याप्तेरभावतः । तत्पुत्रत्वादिहेतूनां गमकत्वं न दृश्यते ॥ पक्षधर्मत्वहीनोऽपि ( गमकः कृत्तिको ) दय: । अन्तर्व्याप्तिरतः सैव गमकत्वप्रसाधिनी ॥ पक्षधर्मत्व-वैकल्येऽप्यन्यथानुपपत्तिमान् । हेतुरेव यथा सन्ति प्रमाणानीष्टसाधनात् ॥ - बही, ४।८२, ८३, ८४, ८७, ८८ । ४. साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः । -प० मु० ३।१५ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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