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________________ १९८ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान विचार नहीं है । इसीतरह वह प्रातःकालीन सूर्योदयका न स्वभाव है और न कार्य। मात्र अविनाभावके कारण वह गमक है। ( ३ ) ग्रहण पड़ेगा, क्योंकि अमुक फल है । __ यहाँ भी न पक्षधर्मत्वादि हैं और न स्वाभावादि हेतु । केवल हेतु स्वसाध्यका अविनाभावी होनेसे उसका अनुमापक है। अतः हेतुका रूप्य और वैविध्यका नियम निर्दोष नहीं है । पर अविनाभाव ऐसा व्यापक और अत्यभिचारी लक्षण है जो समस्त सद्धेतुओं में पाया जाता है तथा असद्धेतुओंमें नहीं। इसके अतिरिक्त उसके द्वारा समस्त सद्धेतुओंका संग्रह भी हो जाता है। सम्भवतः इसीसे अकलंकदेवने पात्रस्वामीकी उक्त 'अन्यथानुपपन्नत्वं' कारिकाको अपनाकर 'अन्यथानुपपन्नत्व' को ही हेतुका अव्यभिचारी और प्रधान लक्षण कहा है। अपिच', 'समस्त पदार्थ क्षणिक हैं, क्योंकि वे सत् हैं' इस अनुमानमें प्रयुक्त 'सत्त्व' हेतुको सपक्षसत्त्वके अभावमें भी गमक माना गया है। स्पष्ट है कि सबको पक्ष बना लेने पर सपक्षका अभाव होनेसे सपक्षसत्त्व नहीं है। अतएव अविनाभाव तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्धोंसे नियन्त्रित नहीं है, प्रत्युत वे अविनाभावसे नियन्त्रित हैं। अविनाभावका नियामक केवल सहभावनियम और क्रमभावनियम है । सहभावनियम कहीं तादात्म्यमूलक होता है और कहीं उसके बिना केवल सहभावमूलक । इसी तरह क्रमभावनियम कहीं कार्यकारणभाव (तदुत्पत्ति) मूलक और कहीं मात्र क्रमभावमूलक होता है। उदाहरणार्थ पूर्वचर', उत्तरचर, सहचर" आदि हेतु हैं, जिनमें न तादात्म्य है और न तदुत्पत्ति । पर मात्र क्रमभावनियम रहनेसे पूर्वचर तथा उत्तरचर और सहभावनियम होनेसे सहचर हेतु गमक हैं। वीरसेनने भी हेतुको साध्याविनाभावी और अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणसे युक्त १. न्यायवि० का० ३८१, अकलंकग्र० पृ० ८० । २. परीक्षामु० ३३१६, १७, १८ । ३,४. सिद्धिवि० ६।१६, लघीय० का० १४ । ५. सिद्धिवि० ६।१५, न्यायवि० का० ३३८, ३३९ । अ० ग्र०, पृ० ७५ । ६. हेतुः साध्याविनाभावि लिंगं अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणोपलक्षितः । -षट्ख० टी० धव० ५।५।५०, पृ० २८७ । किंलक्खणं लिगं ? अण्णहाणुववत्तिलक्खणं । पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं विपक्षे चासत्त्वमिति एतस्विभिलक्षणरुपलक्षितं वस्तु किं न लिंगमिति चेत्, न, व्यभिचारात् । तद्यया-पक्वान्याम्रफलान्येकशाखाप्रभवत्वादुपयुक्ताम्रफलबत् 'इत्यादोनि साधनानि विलक्षणान्यपि न साध्यसिद्धये भवन्ति । विश्वमनेकान्तात्मकं सत्त्वात्, वर्द्धते समुद्रश्चन्द्रवृद्धयन्यथानुपपत्तेः- राष्ट्रभंगः राष्ट्राधिपतेर्मरणं वा प्रतिमारोदनान्यथानुपपत्तेः इत्यादीनि साधनानि
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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