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________________ हेतु-विमर्श : ११५ स्वीकार कर उसे पंचलक्षणोंमें समाप्त माना है । अर्थात् उसे पंचलक्षणरूप प्रकट किया है। वाचस्पति तो यह भी कहते हैं कि एक अविनाभावके द्वारा ही हेतुके पांचों रूपोंका संग्रह हो जाता है । उनके इस कथनसे अविनाभावका महत्त्व स्पष्ट प्रतीत होता है। पर वे उसे तो त्याग देते हैं, किन्तु पंचलक्षण या चार लक्षणवाली अपनी न्यायपरम्पराके मोहको नहीं छोड़ सके । इस अध्ययनसे स्पष्ट है कि न्यायपरम्परामें हेतुस्वरूपकी द्विलक्षण, त्रिलक्षण, चतुर्लक्षण और पंच लक्षण ये चार मान्यताएं रही हैं। उनका कोई एक निश्चित पक्ष रहा हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। पर हां, पांचरूप्य हेतुलक्षण उत्तरकालमें अधिक मान्य हुआ और उसीकी मीमांसा अन्य ताकिकोंने की है। मीमांसक विद्वान् शालिकानाथने' त्रिलक्षण हेतुका निर्देश किया है । पर उनके विलक्षण अन्य दार्शनिकोंके त्रिलक्षणोंसे भिन्न हैं और वे इस प्रकार है-(१) नियतसम्बन्धकदर्शन, ( २ ) सम्बन्धनियमस्मरण और ( ३ ) अबाधितविषयत्व। षडलक्षण : 'धर्मकीतिने हेतुबिन्दुमें नैयायिकों और मीमांसकोंकी किसी मान्यताके आधारपर हेतुके षड्लक्षणका निर्देश किया है। इन षड्लक्षणोंमें-(१) पक्षधर्मत्व, (२) सपक्षसत्त्व, ( ३ ) विपक्षासत्त्व, ( ४ ) अबाधितविषयत्व, (५) विवक्षितैकसंख्यत्व और (६) ज्ञातत्व ये छह रूप हैं । यद्यपि यह षड्लक्षण हेतुकी मान्यता न नैयायिकोंके यहाँ उपलब्ध होती है और न मीमांसकोंके यहाँ । फिर भी सम्भव है किसी नैयायिक और मीमांसकका हेतुको षड्लक्षण माननेका पक्ष रहा हो और उसोका उल्लेख धर्मकीति तथा उनके टीकाकार अज्रटने किया हो। हमारा विचार है कि प्राचीन नैयायिकोंने जो ज्ञायमान लिङ्गको और भाट्टमीमांसकोंने ज्ञातताको अनुमितिमें करण कहा है और जिसका उल्लेख करके समालोचन विश्वनाथ पंचाननने किया है, सम्भव है धर्मकीर्ति और अर्चटने उसीका निर्देश किया है। १. तस्मात्पूर्णमिदमनुमानकारणपस्गिणनम्-नियतसम्बन्धैकदर्शनं सम्बन्धनियमस्मरणं चाबाधकत्वं चाबाधितधिषयत्वं चेति । -प्रकर० पंचि० पृ० २१२ । २. ( क ) षड्लक्षणो हेतुरित्यपरे। त्रीणि चैतानि अबाधितविषयत्वं विवक्षितैकसंख्यत्वं शातत्वं च । -हेतुबि० पृ०६८। ( ख ) षड्लक्षणो हेतुरित्यपरे नैयायिकभीमासकादयो मन्यन्ते...। -अर्चट, हेतुवि० टी० पृ० २०५ । ३. (क) प्राचीनास्तु व्याप्यत्वेन शायमानं लिंगमनुमितिकरणमिति वदन्ति । -सिद्धान्तमु० का० ६७, पृ० ५० । ( ख ) भादाना मते ज्ञानमतीन्द्रियम् । शानजन्या शातता तया शनमनुमीयते । -वही, पृ० ११९ ।. २५
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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