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________________ १९० : जैन तर्कशाबमें अनुमान-विचार द्विलक्षण : विलक्षण अक्षपाद और उनके व्याख्याता वात्स्यायन तथा उद्योतकरके उपर्युक्त हेतुलक्षण-विवेचनपर ध्यान देनेसे प्रतीत होता है कि उन्होंने हेतुको द्विलक्षण और त्रिलक्षण स्वीकार किया है । उद्योतकर' न्यायसूत्रकार और न्यायभाष्यकारके अभिप्रायका उद्घाटन करते हुए कहते हैं कि प्रतिसन्धानका अर्थ है साध्यमें व्यापकत्व और उदाहरणमें सम्भव (सत्त्व)। और इस प्रकार हेतु द्विलक्षण तथा विलक्षण प्राप्त होता है । जब कहा जाता है कि उदाहरणके साथ ही साधर्म्य हो तो विपक्षको स्वीकार न करनेसे द्विलक्षण हेतु कथित होता है । और जब विपक्षको अंगीकार किया जाता है तो यह फलित होता है कि उदाहरणके साथ ही साधर्म्य हो, अनुदाहरणके साथ नहीं। तात्पर्य यह कि हेतुको साध्य ( पक्ष ) में व्यापक, उदाहरण ( सपक्ष ) मैं विद्यमान और अनुदाहरण ( विपक्ष) में अविद्यमान होना चाहिए । और इस प्रकार विलक्षण हेतु अभिहित होता है। उद्योतकरने एक अन्य स्थलपर भी सूत्रकारके अनुमानसूत्रगत 'त्रिविधम्' का व्यख्यान्तर देते हुए लिङ्ग (हेतु ) को प्रसिद्ध, सत् और असन्दिग्ध कहकर प्रसिद्धसे पक्षमें व्यापक, सत्से सजातीयमें रहनेवाला और असन्दिग्धसे सजातीयाविनाभावि ( विपक्षव्यावृत्त ) बतलाया है और इस तरह हेतुको त्रिलक्षण अथवा त्रिरूप प्रकट किया है । इससे जान पड़ता है कि न्यायपरम्परामें आरम्भमें हेतुको द्विलक्षण और विलक्षण माना गया है। प्रशस्तपादने काश्यपकी दो कारिकाओंको उद्धत किया है, जिनमें लिंग और अलिंगका स्वरूप देते हुए कहा गया है कि लिंग वह है जो अनुमेयसे सम्बद्ध है, अनुमेयसे अन्वितमें प्रसिद्ध है और अनुमेयाभावमें नहीं रहता है । ऐसा लिंग अनु १ सोऽयं हेतुः साध्योदाहरणाभ्यां प्रतिसंहितः । कि पुनरस्य प्रतिसन्धानम् ? साध्ये व्याप कत्वं उदाहरणे च सम्भवः । एवं द्विलक्षणस्त्रिलक्षणश्च हेतुर्लभ्यते। उदाहरणनैव साधर्म्यमित्येवं त्रुवताऽनभ्युपगतविपक्षस्याप्युदाहरणेनैव साधर्म्यमिति द्विलक्षणोऽपि हेतुर्भवतात्युक्तम् । यदा पुनविपक्षमम्युपैति तदाऽप्युदाहरणेनैव साधर्म्य नानुदाहरणेनेति त्रिलक्षणो हतुरित्युक्तं भवति । -न्यायवा० १।१।३४; पृ० ११६ । २. अथवा त्रिविधमिति लिङ्गस्य प्रसिद्धसदसन्दिग्धतामाह। प्रसिद्धमिति पक्षे व्यापकं, सदिति सजातोयेऽस्ति, असन्दिग्धमिति सजातोयाविनाभावि । -न्यायवा० ११११५, पृ० ४९ । ३. यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते । तद्भावे च नास्त्येव तल्लिंगमनुमापकम् । विपरीतमतो यत्स्यादेकेन द्वितयेन वा। विरुद्धासिद्धसन्दिग्धमलिंगं काश्यपोऽब्रवीत ॥ -प्रश० भा० पृ.१००।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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