SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भवषव-विमर्श: १८० भी प्रतिपादित की है और इस प्रकार उन्होंने अधिक-से-अधिक दश अवयवोंका कथन किया है। वे इस प्रकार हैं :-१. प्रतिज्ञा, २. प्रतिज्ञाशुद्धि, ३. हेतु, ४. हेतुशुद्धि, ५. दृष्टान्त, ६. दृष्टान्तशुद्धि, ७. उपसंहार, ८. उपसंहारशुद्धि, ६. निगमन और १०. निगमनशुद्धि । देवसूरि', हेमचन्द्र२, और यशोविजयने भी उक्त दशावयवोंका समर्थन किया है। इन ताकिकोंका मन्तव्य है कि जिस प्रतिपाद्यको प्रतिज्ञादि पंचावयवोंके स्वरूपमें शंका हो या उनमें पक्षाभासादि दोषोंकी सम्भावना हो तो उस प्रतिपाद्यको उनके परिहारके लिए उक्त प्रतिज्ञाशुद्धि आदि पांच शुद्धियोंका भी प्रयोग किया जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि भद्रबाहुने एक दूसरे प्रकारसे भी दशावयवोंका निरूपण किया है। उनके नाम हैं-१. प्रतिज्ञा, २. प्रतिज्ञाविभक्ति, ३. हेतु, ४.हेतुविभक्ति, ५. विपक्ष, ६. विपक्ष-प्रतिषेध, ७. दृष्टान्त, ८. आशंका, ९. आशंकाप्रतिषेध और १०. निगमन । पर इन दश अवयवोंका देवसूरि आदि किसी भी उत्तरवर्ती जैन तार्किकने अनुगमन नहीं किया और न उनका उल्लेख किया है। ध्यान रहे कि ये दोनों दशावयवोंकी मान्यताएँ श्वेताम्बर परम्परामें स्वीकृत हैं। दिगम्बर परम्पराके ताकिकोंने उन्हें प्रश्रय नहीं दिया। इसके कारण पर विचार करते हुए पं० सुखलालजी संघवीने लिखा है कि 'इस तफावतका कारण दिगम्बर परम्पराके द्वारा श्वेताम्बर आगम-साहित्यका परित्याग जान पड़ता है।' हमारा अध्ययन है कि दिगम्बर परम्पराके ताकिकोंने अपने तर्कग्रन्थोंमें न्याय और वैशेषिक परम्पराके पंचावयवों पर ही चिन्तन किया है, क्योंकि वे ही सबसे अधिक लोकप्रसिद्ध, चर्चित और सामान्य थे। यही कारण है कि वात्स्यायन द्वारा समीक्षित और युक्तिदीपिकाकार द्वारा प्रतिपादित जिज्ञासादि दशावयवोंकी भी उन्होंने कोई अनुकूल या प्रतिकूल चर्चा नहीं की। दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार वात्स्यायनने पांचों अवयवोंका प्रयोजन बतलाते हुए हेतु और उदाहरणकी परिशुद्धिका जिक्र किया है, जिसका आशय यह है कि दृष्टान्तगत साध्य-साधनधर्मोमें साध्यसाधनभाव व्यवस्थित हो जाने पर साधनभूत धर्मको हेतु बनानेसे वह अनुमेयका अव्यभिचारी होता है। तात्पर्य यह कि वात्स्यायनने निर्दोष हेतु और उदाहरणके प्रयोग द्वारा ही पक्षादि दोषपरिहार हो जानेका प्रतिपादन किया है। १. प्र० न० त० स्या. रत्ना० ११४२, पृ० ५६५ । २. प्र० मी० स्वो० वृ० २।१२१५, पृ० ५३ । ३. जैनतर्कमा० पृ० १६ । ४. दशवे० नि० गा० १३७। ५. प्र० मी०मा०टि० पृष्ठ ९५ । ६. न्या० भा० १२१२३९, पृ०५४ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy