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________________ १९६ : जैन तर्कशासमें अनुमान-विचार सामान्यरूप । यदि दृष्टान्तगत अविनाभावमें भी सन्देह हो जाये तो उसके निराकरणके लिए दूसरे दृष्टान्तकी और दूसरे दृष्टान्तमें तीसरे आदिकी अपेक्षा होगी, जिससे अनवस्था दोष आयेगा । व्याप्तिस्मरणके लिए भी उदाहरण आवश्यक नहीं है, क्योंकि व्याप्तिका स्मरण साध्याविनाभावी हेतुके प्रयोगसे ही हो जाता है। माणिक्यनन्दिके व्याख्याकार चारुकीर्ति कहते हैं कि उदाहरणका प्रयोग उल्टा साध्यधर्मी ( पक्ष ) में साध्य और साधनके सद्भावको सन्दिग्ध बना देता है। यही कारण है कि उपनय और निगमनका प्रयोग उक्त सन्देहकी स्थितिको दूर करनेके लिए होता है । यदि कहा जाय कि उपनय साधनके सन्देह और निगमन साध्यके सन्देहकी निवृत्तिके लिए प्रयुक्त नहीं किये जाते, अपितु हेतुमें पक्षवृत्तिताका प्रतिपादन करने के लिए उपनयको तथा अबाधितत्व और असत्प्रतिपक्षत्वका कथन करनेके लिए निगमनको कहा जाता है तो यह भी ठीक नहीं है, यतः अविनाभावी हेतु और प्रत्यक्षाद्य विरुद्ध साध्य के प्रयोगसे ही हेतुमें पक्षवृतित्व, अबाधितत्व और असप्रतिपक्षत्व तीनोंका निश्चय हो जाता है । अतएव उपनय और निगमन अनुमानके अंग नहीं हैं। फिर भी यदि उन्हें अनुमानांग माना जाय तो उससे युक्त यह है कि समर्थन अथवा हेतुरूप अनुमानके अवयवको ही कहना पर्याप्त है, क्योंकि साध्यसिद्धि में उसका प्रयोग परमावश्यक है। स्पष्ट है कि जब तक असिद्धादि दोषोंका परिहार करके साध्यके साथ साधनका अविनाभावप्रदर्शनरूप समर्थन या अत्यन्त आवश्यक हेतुका प्रयोग नहीं किया जाएगा तबतक दृष्टान्तादि साध्यसिद्धिमें केवल अनुपयोगी ही न रहेंगे, बल्कि निरर्थक भी होंगे। अतः व्युत्पन्न प्रतिपाद्य के लिए पक्ष और हेतु ये दो ही अवयव अनुमेयके ज्ञान । अनुमान ) में आवश्यक हैं। प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, देवसूरि, हेमचन्द्र और धर्मभूषण आदिने माणिक्यनन्दिका ही समर्थन किया है। तुलनात्मक अवयव-विचार : यहाँ तुलनात्मक अवयव-विचार प्रस्तुत किया जाता है, जो ज्ञातव्य है। १. उदाहरणेन महानसे साध्यसाधननिश्चयजननेऽपि पक्षे तयोनिश्चयाजननात् । -चारुकीति, प्रमेयरत्ना० ३६४२ । २. ननु पक्षे हेतुसाध्ययोस्संशयनिरासार्थ नोपनयनिगमनयोः प्रयोगः । किन्तूपनयस्य हेतौ पक्षधर्मत्वप्रतिपादनार्थ निगमनस्य चाबाधितत्वासत्प्रतिपक्षत्वप्रतिपादनार्थ । अत एवं तयोरप्यनुमानांगत्वमावश्यकम् । -वही, ३।४४ की उत्यानिका । ३. पक्षधर्मत्वस्य हेतुवाक्यादेव लाभात् । अबाधितत्वस्य हेतौ साध्यविशिष्टपक्षवृत्तित्वरूप तयाऽसत्पतिपक्षत्वस्य च साध्याभावय्याप्याभावविशिष्टपक्षवृत्तित्वरूपत्वेन तयोरपि प्रतिशाहेतुभ्यामेव सिद्धेः। -वही, ३४४, पृ० ११६ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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