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________________ १५४ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार न्यायमूत्रमें' तर्कको एक स्वतन्त्र पदार्थ के रूपमें माना गया है और उसके लक्षणके साथ ऊह शब्द भी प्रयुक्त है। परन्तु उसे न्यायसूत्रकारने न प्रमाण माना है और न व्याप्तिग्राहक । वाचस्पतिने अवश्य उसे व्याप्तिज्ञानमें बाधक होनेवाली व्यभिचारशंकाको हटाकर व्याप्तिनिर्णयमें सहायता करनेवाला स्वीकार किया है, पर उसे प्रमाण उन्होंने भी नहीं माना। बौद्धताकिक' भी तर्कात्मक विकल्पज्ञानको व्याप्तिज्ञानोपयोगी मानते हुए भी उसे प्रमाण नहीं मानते । इस तरह तर्कको प्रमाणरूप माननेकी मीमांसकपरम्परा और अप्रमाणरूप स्वीकार करनेको नैयायिक तथा बौद्ध परम्परा है। जैन परम्परामें प्रमाणरूपसे माने जानेवाले मतिज्ञानके एक भेदका नाम ऊहा है, जो वस्तुतः गुण-दोषविचारणात्मक ज्ञान-व्यापार ही है। उसके लिए चिन्ता, ईहा, अपोहा, मोमांसा, गवेषणा, मार्गणा और तर्क ये शब्द प्रयुक्त हुए हैं। अकलंकने तकको सर्वप्रथम व्याप्तिग्राहक प्रतिपादनकर उसका प्रामाण्य एवं स्पष्टतया स्थापित किया है। उनके पश्चात् वाचस्पति आदि नैयायिकों और विज्ञानभिक्षु आदि दार्शनिकोंने उसे व्याप्ति-ग्राहक सामग्री में स्थान देकर भी उसका प्रामाण्य स्वीकार नहीं किया। अकलंकका अनुसरण जैन परम्पराके परवर्ती सभी ताकिकोंने किया है । यों तो तत्त्वार्थसूत्रकार उसका परोक्ष प्रमाणके अन्तर्गत 'चिन्ता' पदके द्वारा प्रतिपादन कर चुके थे। पर ताकिकरूपमें उसकी परोक्ष प्रमाणोंमें परिगणना सर्वप्रथम अकलंकने को है । इस प्रकार जहाँ अन्य तार्किक व्याप्तिका ग्रहण मानसप्रत्यक्ष, भूयोदर्शन, व्यभिचाराग्रहसहित सहचारदर्शन, अन्वय-व्यतिरेक, सामान्यलक्षणा और तादात्म्य-तदुत्पत्ति सम्बन्धोंसे मानते हैं वहाँ जैन तार्किक एकमात्र तर्कसे स्वीकार करते तथा संवादी होनेसे उसे प्रमाण वणित करते हैं । १. न्या० सू० १११।४० । २. न्यायबा० ता० टी० ११११५, पृष्ठ १६६, १६७ । ३. हेतुबि० टी० पृ० २४ । ४. षट्ख० ५।५।३८ । ५. व्याप्तिं साध्येन हेतोः स्फुटयति न विना चिन्तयकत्र दृष्टिः, साकल्येनैष तोऽनधिगतविषयः तत्कृतार्थकदेशे। -लघीय० का० ४९, अ० ग्र० । तथा न्या० विनि० का० ३२६, ३० । ६. त० सू० १११३ । ७. ( क ) 'परोक्षं शेषविशानं । -लघीय० का० ३। (ख ) 'परोक्षं प्रत्यभिशादि ।' प० सं० २, तथा लषीय० का० १०, २१, ६१ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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