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________________ व्याप्ति-विमर्श : १५१ अनन्तवीर्यने' प्रत्यक्ष और अनुमानकी तरह आगम, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव अनुपलम्भ, कारणानुपलम्भ, व्यापकानुपलम्भ और प्रत्यक्षफल ऊहापोहविकल्पसे व्याप्तिग्रहकी सम्भावनाओं को भी निरस्त करके तर्कको ही व्याप्तिग्राहक सिद्ध किया है। उनका मन्तव्य है कि आगम संकेतद्वारा वस्तुको उपमान सादृश्यको, अर्थापत्ति अन्यथानुपपद्यमान अर्थको और अभाव अभावको विषय करता है । इनमें सार्वत्रिक और सार्वदिक व्याप्तिको कोई ग्रहण नहीं करता । सवका विषय सर्वथा भिन्न-भिन्न है । अनुपलम्भ उपलम्भकी तरह प्रत्यक्षका विषय अथवा स्वयं प्रत्यक्ष है और कारणानुपलम्भ तथा व्यापकानुपलम्भ दोनों लिंगरूप होनेसे तज्जनित ज्ञान अनुमान हैं और प्रत्यक्ष एवं अनुमान व्याप्तिग्रह में असमर्थ हैं । ऊहापोहविकल्पको, जिसे वैशेषिक प्रत्यक्षका फल मानते हैं, प्रत्यक्ष या अनुमानके अन्तर्गत माननेपर उनके द्वारा व्याप्तिग्रह असम्भव है । अतः उसे प्रत्यक्ष और अनुमानसे पृथक प्रमाण मानना ही उचित है । प्रत्यक्षका फल होनेसे उसे अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वैशेषिकोंने स्वयं विशेषणज्ञानको सन्निकर्षका फल होनेपर भी विशेष्यज्ञानरूप फलको उत्पन्न करनेके कारण प्रमाण स्वीकार किया है । उसी तरह ऊहापोहविकल्प, जो तर्क से भिन्न नहीं है, अनुमानज्ञानका कारण होनेसे प्रमाण माना जाना चाहिए । हेमचन्द्रकार ऊहलक्षण और उसका व्याप्तिनिश्चायकत्व प्रतिपादन माणिक्यनन्दिके प्रतिपादन शब्दशः मिलता है । हाँ, उन्होंने माणिक्यनन्दि और देवसूरिकी तरह उदाहरणका प्रदर्शन नहीं किया, किन्तु बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति" अभिहित एवं अर्चंट द्वारा समर्थित व्याप्ति-लक्षण अवश्य संगृहींत किया है । वे लिखते हैं। कि व्याप्ति, व्याप्य और व्यापक दोनोंका धर्म है । जब व्यापक ( गम्य ) का धर्म व्याप्तिविवक्षित हो तब व्यापकका व्याप्यके होनेपर होना ही व्याप्ति है और जब व्याप्य ( गमक ) का धर्म व्याप्ति अभिप्रेत हो तब व्याप्यका व्यापक के होनेपर ही होना व्याप्ति है । इस प्रकार हेमचन्द्रने" व्याप्ति के दो रूप प्रदर्शित किये हैं । प्रथम रूपमें अयोगव्यवच्छेदरूपसे व्याप्तिको प्रतीति होती है और दूसरेमें अन्ययोगव्यवच्छेदरूपसे । व्याप्तिके इन रूपोंको अन्य जैन तार्किकोंने प्रस्तुत नहीं किया । १. प्र० रत्न० २ २, पृष्ठ ५७-६२ । २. हेमचन्द्र, प्रमाणमी० १ २ ५, ६, १० । ३, ४. हेतुबिन्दुटी० पृ० १७, १८ । ५. व्याप्तिर्व्यापकस्य व्याप्यं सति भाव एव व्याप्यस्य वा तत्रैव भावः । पूर्वत्रायोगव्यवच्छेदेनावधारणम्, उत्तरत्रान्ययोगव्यवच्छेदेनेति '''। - हेमचन्द्र, प्र० मी० १|२| ६ तथा इसीकी व्याख्या ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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