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________________ ग्याति-विमर्श : १४. उसका निर्देश मिलता है। चिन्तन, ऊह, ऊहापोह और तर्क उसीके पर्याय हैं। अकलंकने चिन्तन और तर्कको, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि', प्रभाचन्द्र, देवसूरि", और हेमचन्द्रने तर्क, ऊह तथा ऊहापोहको चिन्ताका पर्याय प्रतिपादन किया है । भारतीय ताकिकोंमें जैन तार्किक अकलंक ही ऐसे प्रथम तार्किक प्रतीत होते हैं जिन्होंने तकका व्याप्तिग्राहकरूपमें सर्वप्रथम समर्थन किया और उसका सबलताके साथ प्रामाण्य स्थापित किया है। यद्यपि गौतम अक्षपादने तर्कको सोलह पदार्थो में परिगणित किया है, पर उन्होंने उसे मात्र तत्त्वज्ञानार्थ माना है और उनके व्याख्याकार वात्स्यायन तथा उद्योतकरने° उसे जिज्ञासात्कक, प्रमाणसहायक, प्रमाणानुग्राहक या संशय और निर्णयका मध्यवर्ती बतलाया है, उसे व्याप्तिग्राहक नहीं कहा । किन्तु अकलंकके बाद वाचस्पति, उदयन, वर्द्धमान आदि प्राचीन तथा नव्य नैयायिकों और विज्ञानभिक्षु आदि दार्शनिकोंने उसे भी व्याप्तिग्राहकसामग्रोमें स्थान दिया तथा व्याप्तिग्राहकरूपमें दृढ़तासे मान लिया है। पर उसे प्रमाण स्वीकार नहीं किया। अकलंकने तर्कके प्रामाण्य, स्वरूप, विषय और क्षेत्रविस्तारका भी निर्धारण किया है। उन्होंने उसे प्रमाण सिद्ध करते हुए युक्तिपूर्वक कहा कि उसे प्रमाण न मानने पर उससे उत्पन्न होने वाले लैंगिक ( अनुमान ) का प्रामाण्य भी असन्दिग्ध एवं निरापद नहीं रह सकेगा। दूसरे, प्रत्यक्ष और अनुमानकी तरह वह भी संवादी है , अतः उसे अवश्य प्रमाण मानना चाहिए। तर्कका स्वरूप बतलाते हुए उन्होंने५२ १. “चिन्तनं चिन्ता।' -तत्त्वा० वा० १।१३, पृष्ठ ५८ । चिन्तायाः तकस्य ।' -लघी० खाप० वृ० १।२।१०, पृ. ५ । २. त० लो० ११३, पृ० १८८, १९४, १६६ । ३. ५० मु० १०.१, १६ । ४. प्र. क. मा० १।११, १६ । ५. प्र० न० त० ३१७ । ६. प्र० मी० १२५, ११। ७. न्या. वि. का० ३२९, ३३० । लघीय का० १०, ११, ४९ । प्र० सं० का० १२ । ८. न्यायसू० ११११४०। ६. न्या० भा० १.१.१॥ पृष्ठ ९, ११११४०, पृ० ५४, ५५, ५६ । १०. न्या० वा० ११११४०, पृ० १४१.१४२ । ११. न्या० विनि० का० ३३०, ३३१, तथा लघी० का० ४९ और प्र० सं० स्त्रो० वृ० का० १२। १२. सम्भवप्रत्ययस्तकः प्रत्यक्षानुपलम्भतः । अन्यथासम्भवासिद्धरनवस्थानुमानतः ॥ -प्रमाण सं० का० १२, अकलंकग्र० पृ० १००।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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