SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्याति-विमर्श : १४५ तर्कके बिना मात्र सहचारदर्शनसे हो व्याप्तिग्रह मानते हैं उनके अनुमानोंमें 'पक्षेतरत्व' उपाधि होती है। जहां व्यभिचारज्ञानविरहसहकृत सहचार दर्शन नहीं है वहां शब्द और अनुमानसे व्याप्तिग्रह होनेका भी उन्होंने उल्लेख किया है।' वर्द्धमान उपाध्यायके जिस प्रतिपादनका ऊपर उल्लेख किया गया है वह गंगेशने तत्त्वचिन्तामणिमें विस्तारपूर्वक दिया है । उन्होंने मीमांसाकादिद्वारा अभिमत भूयोदर्शनादि व्याप्तिग्रहोपायोंकी समीक्षा करते हुए भूयोदर्शनको शायक और तर्कको अनवस्थाग्रस्त निरूपित किया है और उत्तरपक्ष के रूपमें व्यभिचारज्ञानविरहसहकृत सहचारदर्शनको व्याप्तिग्राहक बतलाया है। उनका मत है कि व्यभिचारनिश्चय और व्यभिचारशंका दोनोंका अभाव कहों तो विपक्षबाधक तर्कसे और कहीं स्वयं ही सिद्ध होता है। जब तक व्यभिचारको आशंका रहती है तब तक तक अपेक्षित होता है। अतः तर्कको किसी सीमा तक व्याप्तिग्राहक माननेपर अनवस्थाका प्रसंग नहीं आता । इसी प्रकार जहां विरोधी प्रमाणके प्रदर्शनसे शंका हो अवतरित नहीं होती, वहां तक के बिना हो व्याप्तिग्रह हो जाता है। विश्वनाथ, केशव', अन्नम्भट्ट, प्रभृति नैयायिकोंने प्रायः गंगेशका हो अनुसरण किया है। संक्षेपमें न्यायदर्शनमें व्याप्तिग्रहके निम्न साधन वणित है (१) भूयः सहचारदर्शन (२) व्यभिचारज्ञानविरह १. इयं च प्रत्यक्षव्याप्तिग्रहसामग्री तदमावेऽपि शब्दानुमानाम्यां व्याप्तिग्रहादिति संक्षेपः । -वही, पृष्ठ ७०२।। २. अत्राच्यते । व्यभिचारुविर हसहकृतं सहचारदर्शनं व्याप्तिग्राहकम् । शानं निश्चयः शंका च । सा च क्वचिदुपापिसन्देहात् क्वचिादशवादशनसाहतसाधारणधमदर्शनात् । तदि. रहश्च क्वचिद्विपक्षबाधकतकोत्, क्वचित् स्वतः सिद्ध एव । तकस्य व्याप्तिग्रहमूलकत्वनानवस्थेति चेत् । न । यावदाशंक तर्कानुसरणात् । यत्र च व्याघातेन शंकैव नावतरति तत्र तर्क विनैव व्याप्तिग्रहः । -त. चि०, जागदोशी, व्याप्तिग्रहोपाय, पृ० ३७८ । ३. व्यभिचारस्याग्रहोऽपि सहचारग्रहस्तथा । हेतुर्व्याप्तिग्रहे, तर्कः क्वचिच्छंकानिवर्तकः । -सि० मु० का० १३७, पृष्ठ १२१, १२२ । ४. "इति तर्कसहकारिणाऽनुपलम्भसनाथेन प्रत्यक्षेणेयोपाध्यमावोऽवधार्यते। तथा च उपाध्यभावग्रहणजनितसंस्कारसहकृतेन साहचर्यग्राहिणा प्रत्यक्षेणैव धमाग्न्योाप्तिरवधार्यते। -तर्कभा० अनु० पृष्ठ ७६ । ५. स्वयमेव योदर्शनेन यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निरिति महानसादौ व्याप्तिं गृहीत्वा पर्वतसमीपं गतः। -त० सं० पृष्ठ ५८ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy