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________________ ध्याति-विमर्श : ४३ दर्शनको द्वितीय प्रत्यक्ष, लिंगदर्शनके अनन्तर होने वाली स्मृति और स्मृतिके बाद होने वाले 'यह धूम है' इस प्रकारके ज्ञानको तृतीय ( अन्तिम ) प्रत्यक्ष कह कर उन्हें अनुमितिकी सामग्री बतलाया है और उक्त दोनों प्रत्यक्षों तथा स्मृतिसे अनुगृहीत तृतीय लिंगदर्शनको, जिसे परामर्श कहा है, अनुमान प्रतिपादन किया है। यद्यपि उद्योतकरने' प्रसंगतः कतिपय अन्य अनुमानपरिभाषाओंकी समीक्षा भी प्रस्तुत की है। पर व्याप्तिग्रहणपर कोई विशेष प्रकाश नहीं डाला । वाचस्पति मिश्रने अवश्य व्याप्तिग्रहोपायपर चिन्तन किया है । साथ ही तदुत्पत्ति और तादात्म्यसे व्याप्तिकी स्थापना करने वाले बौदोंकी मीमांसा भी की है। साध्य-साधनके स्वाभाविक सम्बन्धपर बल देते हुए उन्होंने प्रतिपादन किया है कि जहाँ कोई उपाधि उपलब्ध नहीं होती वहां स्वाभाविक सम्बन्ध होता है । प्रश्न है कि इस स्वाभाविक सम्बन्धका ग्रहण होता कैसे है ? वाचस्पतिका मत है कि जहां सम्बन्धी (साधन-साध्य ) प्रत्यक्ष हैं वहां उनके सम्बन्धका ग्रहण प्रत्यक्षसे होता है और जहां सम्बन्धी ( साधन-साध्य ) प्रत्यक्षातिरिक्त प्रमाणोंसे विदित है वहां उनके स्वाभाविक सम्बन्धका निर्णय भूयोदर्शन सहकृत अन्य प्रमाणोंसे सम्पन्न होता है। उन अन्य प्रमाणोंमें मुख्य तर्क है । वह तर्क इस प्रकार है-'जो हेतु स्वभावतः अपने साध्यके साथ प्रतिबद्ध हैं वे यदि साध्यके विना हो जाएं तो वे स्वभावसे ही च्युत हो जाएंगे' इस प्रकारके तर्कको सहायतासे जिनके साध्याभावमें रहनेका सन्देह निरस्त हो जाता है वे हेतु अपने साध्यके उपस्थापक (गमक ) ५. ( क ) अपरं तु बुवते नान्तरीयकार्यदर्शन तद्विाऽनमानामति । (ख ) एतेन ताहगांवनाभाविधमोपदर्शनं हेतुरिति प्रत्युक्तं । ( ग ) अपरे तु मन्यन्ते–अनुमेयेऽथ तत्तल्ये सद्भावा नास्तिताऽसतीत्यनमानम् ।। -उद्यातकर न्यायवा० १६१०५, पृष्ठ ५४, ५५ । २. अपि च रसादन्य द्रूपं रससमानकालमनुमिमतेऽनुमातारः, न चायनयोरस्ति कार्य कारणभावः तादात्म्यं वा । 'अपि चाद्यतनस्य सवितुरुदयस्थ शस्तनेन सवितुरुदयेन चन्द्रोदयस्य च समानकालस्य समुद्रवृड्या, मध्य नक्षवदृष्ट्या चाष्टमास्तमयादयस्य न कार्यकारणभावस्तादात्म्यं वा, अथ च दृष्टी गम्यगमकभावः । -न्यायवा० ता० टी० ११५, पृष्ठ १६१, १६२। तथा उदयन, न्यायवा० ता० टी० परिशु० ११५, पृ० ६६७-६६९ । ३. वही, पृ० १६५। ४. केन पुनः प्रमाणेन स्वाभाविकः सम्बन्धी गृह्यत । प्रत्यक्षसम्बन्धिषु प्रत्यक्षेण । एवं माना न्तर विदितसम्बन्धिपु मानान्तराण्येव यथास्वं भूयोदर्शनसहायानि स्वाभाविकसम्बन्धग्रहणे प्रमाणान्युन्नेतव्यानि । स्वभावतश्च प्रतिबद्धा हेतवः स्त्रसाध्येन यदि साध्यमन्तरेण भवेयुः, स्वभावादेव प्रच्यवेरन्निांत तर्कसहाया निरस्तसाध्य व्यतिरेकवृत्तिसन्देहा यत्र दृष्टास्तत्र स्वसाध्यमुपस्थापयन्त्येव । -वही, पृष्ठ १६६, १६७ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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