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________________ ग्याति-विमर्श : .१३९ उल्लेखनीय है कि सर्वदर्शनसंग्रहकारने बौद्धोंके कार्यकारणभावनिश्चयके प्रकारका भी निर्देश किया है। वह प्रकार है 'पंचकारणो' । उन्होंने लिखा है कि बौद्ध नैयायिक पंचकारणी प्रक्रियाके द्वारा कार्यकारणभावका निश्चय करते हैं और कार्यकारणभावके निश्चयसे अविनाभावका निश्चय । यह प्रतिपादन धर्मकीतिका है, जिसे उन्होंने हेतुबिन्दुमें किया है । परन्तु धर्मकीर्ति और उनके टीकाकारोंने अविनाभावको कार्यकारणभाव और स्वभाव ( तादात्म्य ) इन दोमें ही नियन्त्रित कर उसके व्यापक स्वरूप एवं क्षेत्रको संकुचित बना दिया है, फलतः उक्त पूर्वचरादि हेतुओंमें व्याप्तिको स्थापना नहीं हो सकती। (२) वेदान्त व्याप्ति-स्थापना : वेदान्त दर्शनमें व्याप्तिका ग्रहण प्रत्यक्ष द्वारा माना गया है। उसका मत हैं कि साध्य-साधनके साहचर्यको ग्रहण करनेवाला प्रत्यक्ष भूयोदर्शन, व्यभिचारादर्शन आदि सहकारियोंसे सहकृत हो कर व्याप्तिका निश्चय करता है। जहां पूर्वसंस्कार प्रबल रहते हैं वहां व्याप्तिका निर्णय अनुमान और आगम द्वारा भी होता है। यथा-'ब्रह्माणो न हन्तव्यः', 'गीन पादाःस्पृष्टव्याः' 'जैसे स्थलोंमें व्याप्तिका ग्रहण आगमद्वारा ही सम्भव है। बौद्धों और वेदातिन्यों की व्याप्तिस्थापनामें यह अन्तर है कि बौद्धोंके अनुसार १. तस्मात्तदुत्पत्तिनिश्चयेनाविनाभावो निश्चीयते । तदुत्पत्तिनिश्शयश्व कार्यहेत्वोः प्रत्यक्षोप लम्भानुपलम्भपंचकनिबन्धनः । कार्यस्योत्पत्तेः प्रागनुपलम्भः, कारणोपलम्मे सनि उपलम्भः उपलब्धस्य पश्चात् कारणानपलम्भादनपलम्भं इति पंचकारण्या धूमधूमध्वजयोः कार्यकारणभावो निश्चीयते।। -माधवाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रह बौद्ध दर्श० पृष्ठ २०।। २. देवमूरि, स्यावादरत्नाकर ३८, पृष्ठ ५१३, ५१४ भी दृष्टव्य है। ३. कायहेतौ कार्यकारणभावमिद्धिः यथेदमम्योपलम्मे उपलभ्यते उपलब्धिलक्षणप्राप्तमनुपल ब्धमपलम्यते, सत्स्वप्यन्येषु हेतुपु अस्याभावे न भवतीति यस्तद्भावे भावस्तदभावेऽभावश्च प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनः कार्यकारणभावः तस्य सिद्धिः । -हेतु. वि. पृष्ठ ५४। ४. वेदान्तिनस्त्वाहुः । प्रत्यक्षं त्याप्तिग्राहकम् । तथा च साहचर्यग्राहिणः प्रत्यक्षस्य भूयोदर्शनव्यभिचारादर्शनोपाध्यमात्रनिश्चयाः सहकारिणः । एवमनुमानागमावपि व्याप्तिग्राहकी। तत्रागमेन व्याप्तिग्रहस्तु 'ब्राह्मणा न हन्तव्यः', 'गोर्न पादाः स्पृष्टव्याः' इति । अत्र दृष्टान्नापेक्षा नास्ति । -न्यायकोश, पृ० ८३३ । ५. (क) अथ प्रत्यक्षपृष्ठभाविविकल्पात् साकल्येन साध्यसाधनभावप्रतिपत्तन प्रमाणान्तर तदर्थ मृग्यमित्यपरः। -प्र०र० मा० २१२, पृष्ठ ५६ ।। ( ख ) यस्यानुमानमन्तरेण सामान्यं न प्रतीयते तस्यायं दोषोऽस्माकं तु प्रत्यक्षपृष्ठभाविनापि विकल्पेन प्रकृतिविभ्रमात् सामान्यं प्रतीयते ।। -हेतुविन्दुटो०, पृष्ठ २३, २४ । तथा मनोरथ० पृष्ठ ७॥
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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