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________________ म्याप्ति-विमर्श : १. होनेकी भो सम्भावना है। यथार्थ में मैत्रीतयत्वहेतुका श्यामत्त्वसाध्य के साथ न सहभावनियम है और न क्रमभावनियय, क्योंकि कोई यदि यह व्यभिचार-शंका करे कि गर्भस्थ पुत्रमें 'मैत्रीका पुत्रपन' तो हो, किन्तु 'कालापन' न हो, तो इस व्यभिचार-शंकाका निवर्तक ऐसा अनुकूल तक नहीं है कि 'यदि गर्भस्थ पुत्रमें कालापन न हो तो उसमें 'मैत्रीका पुत्रपन' भी नहीं हो सकता, क्योंकि गर्भस्थ मैत्रीपुत्रमें 'मैत्रीके पुत्रपन' के रहने पर भी कालापन सन्दिग्ध है। और विपक्षमें बाधकप्रमाणों-व्यभिचार-शंका निवर्तक अनुकूल तोंके बलसे हेतु और साध्यमें व्याप्तिका निश्चय होता है और व्याप्तिके निश्चयसे सहभाव अथवा क्रमभावका निर्णय होता है। तथा सहभाव और क्रमभावनियम ही अविनाभाव हैं। अतः मंत्रीतनयत्वहेतुमें शाकपाकजन्यत्व उपाधिके सद्भावसे व्यभिचार और व्यभिचारसे व्याप्तिका अभाव नहीं है, अपितु व्यभिचारशंकानिवर्तक अनुकूल तर्कके न होनेसे ही उसमें व्याप्तिका अभाव है। यही दृष्टिकोण जैन ताकिकोंने सभी सद्-असद् अनुमानोंमें अपनाया है। तात्पर्य यह कि जैन तर्कशास्त्रमे हेतुको गमकता और अगमकतामें प्रयोजक क्रमशः उसके साध्याविनाभावका निश्चय और साध्याविनाभावके अभावका निश्चय स्वीकृत है । तथा अविनाभावका निश्चय एकमात्र तर्कप्रतिष्ठित है, जैसा कि आगे विवेचित है। (ङ) व्याप्ति-ग्रहण : इस व्याप्तिके ग्रहण ( निश्चय ) का ऊहापोह चार्वाकके अतिरिक्त शेष सभी भारतीय विचारकोंने किया है। चार्वाक* व्याप्ति-ग्रहणको असम्भव बतलाकर अनुमानके प्रामाण्यका निषेध करता है और प्रत्यक्षको ही एकमात्र ज्ञानोपलब्धिका साधन मानता है। किन्तु अन्य समस्त अनुमानप्रमाणवादी अनुमानके आधारभूत व्याप्ति-ग्रहणको सम्भव बतलाते और उसके ग्रहण-प्रकारका प्रतिपादन करते हैं । यहाँ दार्शनिकोंके व्याप्ति ग्रहणसम्बन्धी मतोंपर विचार किया जाता है। १. न हि मैत्रीतनयत्वस्य हेतुत्वाभिमतस्य श्यामत्वेन साध्यवाभिमतेन सहभावः क्रममावो वा नियमाऽस्ति, येन मैत्रीतनयत्वं हेतुः श्यामत्यं साध्यं गमयेत् । -न्या० दो० पृष्ठ ९२ । २. वही, पृष्ठ ६३ । ३. सहकमभावनियमोऽविनाभावः । -माणिक्यनन्दि, प० मु० ३.१६ । ४. सत्यप्यन्वयविशाने सतर्कपरिनिष्ठितः । अविनाभावसम्बन्धः साकल्येनावधार्यते ॥ -अकलंक, न्या० वि० २।३२६ । ५. प्रभाचन्द्र, प्र० क० मा० २।१, पृष्ठ १७७, द्वितीय संस्करण । १८
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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