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________________ १३४ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान- विचार व्यापकका व्यभिचारी होता है वह साध्य ( व्याप्य ) का व्यभिचारी अवश्य होता है । उदाहरणार्थ 'धूमवत् वह्नेः' यहाँ आर्द्रेन्धनसंयोग उपाधि है। आर्द्रन्धनसंयोग धूम ( साध्य ) का व्यापक ( समव्याप्त ) है और वह्नि ( हेतु ) आर्द्रेन्धनसंयोगका व्यभिचारी है - वह उसके अभाव ( अयोगोलक आदि ) में भी रहता है । अत: 'वह्नि' हेतु 'धूम' साध्यके व्यापक ( आर्द्रेन्धनसंयोग ) का व्यभिचारी होनेसे धूम ( साध्य - व्याप्य ) का भी व्यभिचारी है । तात्पर्य यह कि उपाधिके सद्भावसे हेतु में व्यभिचार और उपाधिके अभाव से उसमें अव्यभिचारका अनुमान होता है । अन: यदि किसी हेतु में उपाधि उपलब्ध होती है तो उससे उस हेतुमें व्यभिचारका निश्चय होता है और व्यभिचारके निश्चयसे तज्जन्य अनुमान दूपित अनुमान समझा जाता है और यदि उपाधि नहीं पायी जातो तो उसके अभाव से हेतुमें अव्यभिचारका निर्णय किया जाता है और अव्यभिचारके निर्णयसे तदुत्पन्न अनुमान निर्दोष माना जाता है । यही उपाधि-विचारका प्रयोजन है । ४ एक प्रश्न और है । वह यह कि उपाधिके सद्भाव और असद्भावका निर्णय कैसे होता है ? इस सम्बन्ध में वाचस्पतिका मत है कि प्रयत्नसे उपाधिका अन्वेषण किया जाए। यदि अन्वेषण करने पर वह उपलब्ध न हो तो 'उपाधि नहीं है' ऐसा अवगत करके विवक्षित साधन के सम्बन्धकी स्वाभाविकता ( अनोपाधिकता ) का निश्चय कर सकते हैं । उदयन' वाचस्पति के इस मन्तव्यको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि प्रत्यक्षगम्य उपाधियों का निराकरण तो योग्यानुपलब्धिसे हो जाता है और प्रमाणान्तरगम्य व्यापक अव्यापक नित्य - अनित्य सम्भाव्य उपाधियोंका निरास परीक्षा ( सर्वशङ्कानिवर्त्तक तर्क ) द्वारा होता है । यही कारण है कि उपाधिको न देखने पर विरोधिप्रमाणके होने न होने के निश्चय में व्यग्र रहने के कारण अनुमाता अनुमिति में कुछ कालका विलम्ब कर देते हैं । अन्ततोगत्वा उपाधिके अनुपलम्भसे उसके अभावका १. उदयन, किरणावली, पृष्ठ ३०१ । २. व्यभिचारस्यानुमानमुपाधेस्तु प्रयोजनम् । - विश्वनाथ, सि० मु० का० १४०, पृ० १२३ । ३. तस्मादुपाधाववश्यं व्यभिचारोऽनुपाधाववश्यमव्यभिचारः... - न्यायवा० ता० परि०१११५, ५० ६७२ तथा किरणावली पृष्ठ ३०० । त० चि० उपाधिवाद, पृ० ३९४-९५ । ४. तस्मादुपाधिं प्रयत्नेनान्त्रिष्यन्तोऽनुपलभमाना नास्तीत्यवगम्य स्वाभाविकत्वं सम्बन्धस्य निश्चिनुमः । - न्यायवा० ता० टी० १ १ ५, पृ० १६५ । ५. प्रत्यक्षापलम्भास्तावद्योग्यानुपलब्धेरेव निरस्ताः । प्रमाणान्तरपरिदृष्टानामपि व्यापकानामुपाधित् वह्नेः सार्वत्रिकत्वप्रसंग: अव्यापकानामपि नित्यानामुपाचित्वे...। अत एवांपाधिमपश्यन्तो... मुहूर्तमनुमितौ विलम्बामहे । । - न्यायवा० ता० परिशु० १ १ ५, पृ० ६६२-९५ । तथा किरणा० पृ० ३०१ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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