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________________ अनुमानभेद-विमर्श : १२९ ज्ञान होता है । परन्तु व्याप्तिज्ञानके अनन्तर साधनसे साध्यका ज्ञान वह स्वयं करता है । अतः उसका साध्यज्ञान स्वार्थानुमान ही है । हाँ, श्रोताका व्याप्तिज्ञान उसके स्वार्थानुमानका कारण होनेसे परार्थ अनुमान कहा जा सकता है । तथा वक्ताके प्रतिज्ञा-हेतुरूप वचन भी श्रोताके व्याप्तिज्ञानके कारण होनेसे परार्थानुमान कहे जा सकते हैं। परार्थानुमानके अंग और अवयव : धर्मभूषणकी एक विशेषता और उल्लेख्य है । उन्होंने स्वार्थानमानको तरह परार्थानुमानके भी अंगोंका निर्देश किया है । अर्थात् परार्थानुमान भी स्वार्थानुमानको भांति धर्मी, साध्य और साधन इन तीन अथवा पक्ष और हेतु इन दो अंगों से सम्पन्न होता है। यह ज्ञानात्मक परार्थानुमानके सम्बन्धमे उनका विवेचन है। पर वचनात्मक परार्थानुमान ( परार्थानुमान प्रयोजक-वाक्य ) के उन्होंने दो अवयव बतलाये है-(१) प्रतिज्ञा और ( २) हेतु। और इनका समीक्षा पूर्वक प्रतिपादन किया है । इनपर हम आगे 'अवयव विमर्श' प्रकरण में विशेष विचार करेंगे। इस प्रकार जैन तर्कग्रन्थों में अनुमानके स्वार्थ और परार्थ यही दो भेद अभिमत हैं। १. तस्यैतस्य परार्थानुमानस्यांगसम्पत्तिः स्वार्थानुमानवत् । -न्या० दी० पृष्ठ ७६ । २. परार्थानुमानप्रयोजकस्य च वाक्यस्य दावयवी, प्रतिज्ञा हेतुश्च । -वही, पृष्ठ ७६ । १७
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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