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________________ 3 अनुमानभेद-विमर्श : १२७ सिद्ध धर्मी हैं । प्रकट है कि योग्य देशस्थ और वर्तमानकालीन शब्द श्रावण प्रत्यक्ष से सिद्ध हैं तथा दूरस्थ और अतीत एवं भावी शब्द विकल्पसिद्ध हैं । धर्मीकी प्रसिद्धताका निरूपण जैन परम्परा में धर्मभूषणके सिवाय उनके पूर्व माणिक्यनन्दि', देवसूरि २, हेमचन्द्र प्रभृतिने भी किया है। उल्लेखनीय है कि न्यायप्रवेशकारने ४ धर्मीको प्रसिद्ध तो माना है, पर वे उसे प्रमाणसिद्ध ही स्वाकार करते प्रतीत होते हैं, विकल्पसिद्ध और प्रमाणविकल्पसिद्ध नहीं, क्योंकि उसे उन्होंने मात्र प्रत्यक्षाविरुद्ध कहा है, जिसका तात्पर्य है कि धर्मी प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे अविरोधी होना चाहिए । धर्मकीर्ति" तो विकल्पसिद्ध और प्रमाणविकल्पसिद्ध धर्मीकी मान्यतापर आक्षेप करके उनका निराकरण भी किया है । यह कहना कठिन है कि उनका आक्षेप किनपर है ? पर इतना निश्चित है कि धर्मकीर्तिके आक्षेपका सविस्तर उत्तर उनके उस आक्षेप प्रदर्शक पद्य के उद्धरणपूर्वक जैन तर्कग्रन्थोंमें ही उपलब्ध होता है | अतः सम्भव है कि उक्त तीन प्रकार के धर्मी ( पक्ष ) को माननेवाले जैन ताकिकोंपर ही उनका वह आक्षेप हो । देवमूरिने' स्पष्टतया धर्मकीर्तिके आक्षेपका उत्तर देते हुए उनके उल्लेखपूर्वक कहा भी है कि धर्मकीर्तिको स्वयं विकल्प सिद्ध धर्मी मानना पड़ता है । अन्यथा 'प्रधानादि नहीं हैं, क्योंकि उनकी उपलब्धि नहीं होती' आदि प्रयोग वे कैसे कर सकेंगे, क्योंकि प्रधानादि उनकी दृष्टि में प्रमाणसिद्ध नहीं हैं । इसी तरह देवसूरिने विकल्पसिद्धि धर्मीको स्वीकार न करनेवाने नैयायिकोंकी भी सयुक्तिक समीक्षा की है। तात्पर्य यह कि उक्त तीन प्रकारके धर्मी की मान्यता जैन तार्किकों द्वारा प्रस्तुत ज्ञात होती है और केवल प्रमाणसिद्ध धर्मी की मान्यता अन्य तार्किकोंकी । १. प० मु० ३।२७-३१ । २. प्र० न० त० ३।२०-२२ । ३. प्र० मा० ११२।१६-१७ । ४. तत्र पक्षः प्रसिद्धी धर्मा प्रसिद्धविशेपेण विशिष्टतया स्वयं साध्यत्वेनेप्सितः । प्रत्यक्षाद्य विरुद्ध इति वाक्यशेषः । न्या० प्र० पृष्ठ १ । ५. नासिद्धे भावधर्मोऽस्ति व्यभिचार्युभयाश्रय: । धर्मो विरुद्धाऽभावस्य सा सत्ता साध्यते कथम् ॥ -प्र० वा० १११६२ | ६. प्र० र० मा० ३।२५ । स्या० रत्ना० ३।२२ प्र० मी० १/२/१७ । ७. न च विकल्पाद्धर्मप्रसिद्धि नाभ्यशंसन् भवन्तः । न सन्ति प्रधानादयोऽनुपलब्धेरित्यादि प्रयोगाणां धर्मकीर्तिना स्वयं समर्थनात् । -स्था०र० ३ २२, पृ० ५४२ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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