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________________ १२४ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान- विचार १ २ रूपसे । व्युत्पन्नोंके लिए दोनोंक प्रयोगको आवश्यकता नहीं है, उनके लिए तो किसी एकका ही प्रयोग पर्याप्त है और वे उतने मात्र से व्याप्ति ग्रहण तथा साध्यका ज्ञान कर लेते है । देवसूरिकी एक विशेषता और दिखाई देती है । वे जयन्त भट्ट की तरह श्रोता के स्वार्थानुमान मानते है और वक्ताको परार्थानुमानका प्रयोक्ता । उनका कहना है कि श्रोता वक्ता के वचनमात्र से साध्यका ज्ञान नहीं करता और न वक्ता हो यह मानना है कि श्रीनाने मेरे वचनोंसे साध्यका ज्ञान किया । किन्तु वक्ता मानना है कि मैंने अनुमानसे बोध कराता हूँ तथा श्रोता भी यह समअता है कि मैंने साध्याविनाभावां सावन से साव्यका ज्ञान किया । अतः वक्ताका अनुमान श्रोता के साध्यज्ञानका कारण होनेसे परार्थ कहा जाता है और श्रोताका स्वार्थानुमान | देवसूरिका यह विचार बुद्धिको स्पर्श करता है । वास्तव में अनुमान उसी को होता है जिसने व्याप्तिका ग्रहण कर रखा है। जिसने व्याप्तिका ग्रहण नहीं किया, उसे अनुमान नहीं होता । अतः वक्ता पक्ष और हेतु वचन बोलकर प्रतिपाद्य की व्याप्ति ग्रहण कराता है व्याप्ति ग्रहण के बाद प्रतिपाद्य स्वयं साधनसे साव्यका ज्ञान कर लेता | अव उसका वह साध्यज्ञान स्वार्थानुमान ही कहा जाएगा, परार्थानुमान नहीं । परार्थानुमान तो वक्ताका पक्ष और हेनुवचन तथा उनसे उत्पन्न श्रोताका व्याप्तिज्ञान माना जाएगा, जो श्रोताके स्वार्थानुमान के कारण हैं । तात्पर्य यह कि श्रोताका माध्यज्ञान हर हालत में स्वार्थानुमान हैं, भले ही उसके इस स्वार्थानुमानमें कारण पडने वक्ता के पक्ष और हेतुवचनों तथा उनसे होने वाले श्रोताके व्याप्तिज्ञानको परार्थानुमान कहा जाए । प्रत्यक्ष परार्थ है : सिद्धमेन और देवसूरिका मत : उसकी मीमांसा : सिद्धमेनने न्यायावतार में अनुमानकी तरह प्रत्यक्षको भी परार्थ प्रतिपादन किया है। उनका कहना है कि प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रसिद्ध अर्थका प्रकाशन करते हैं और दोनों ही परके प्रसिद्धार्थ प्रकाशनके उपाय है । अतः दोनों परार्थ हैं । जब प्रत्यक्ष प्रतिपन्न अर्थका दूसरोंके लिए वचनद्वारा प्रतिपादन किया जाता है। तो वह वचन भी ज्ञानमें कारण होनेसे प्रत्यक्ष कहा जाता है । उनके इस विचारका १. ५० मु० ३,९६, ९७ प्र० मा० २.१.६ । २. स्था० २० ३.२३, पृ० ५४८, ५४६ । ३. प्रत्यक्षेणानुमानेन प्रासाथ प्रकाशनात् । परस्य तदुपायत्वात् परार्थत्वं व्याग || प्रत्यक्षप्रतिपन्नार्थप्रतिपादि च यद्वच: । प्रत्यक्षं प्रतिभासस्य निमित्तत्वात् तदुच्यते ॥ -न्यायाव० का० ११, १२ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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