SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार यदि स्मरणादिको अनुमानका कारण होनेसे अनुमान माना जाए तो प्रत्यक्षको भी। अनुमानका हेतु होनेसे अनुमान माना जाना चाहिए और इस तरह स्मरणादिकी तरह प्रत्यक्ष भी गौण अनुमान कहा जाएगा, जो किसी भी तार्किकको अभिमत नहीं है । सम्भवतः इसीसे उत्तरवर्ती ताकिकोंन वादिराज के इस अनुमानढे विघ्यको स्वीकार नहीं किया। माणिक्यनन्दिने ' अनुमानके उक्त स्वार्थ और परार्थ भेदोंका विशद निरूपण किया है। उनके बाद तो सभी परवर्ती प्रभाचन्द्र अनन्तवीर्य, देवमूरि', हेमचन्द्र" आदिन इसी द्विविध अनुमान-मान्यताको अनुसृत किया है। देवमूरि और हेमचन्द्रका यहाँ एक वैशिष्ठ्य परिलक्षित होता है। वह यह कि उन्होंने एक ही मूत्र द्वारा अनुमानके दो प्रकारोंकी सूचना और उन दोनों प्रकारों का निर्देश किया है, माणिक्यनन्दिकी तरह उन्हाने दो सूत्रोंकी रचना नहीं की। इन दोनों ताकिकोंकी एक विशेषता और उल्लेख्य है। इन्होंने अनुमान-सामान्यके लक्षणके अतिरिक्त स्वानुमानका अलग लक्षण प्रस्तुत किया है जो बहुत विशद और उचित है। माणिक्यनन्दिन, सिद्धसेनकी तरह सामान्यलक्षणको ही स्वार्थानुमानका लक्षण बताया है। ध्यातव्य है कि हेमचन्द्रका स्वार्थानुमान-लक्षण देवमूरिके स्वार्थानुमानलक्षणसे भिन्न और निर्दोप है। हेमचन्द्रने' 'स्वयं निणीत साध्याविनाभाववाले साधनमे होनेवाले साध्यज्ञानको स्वार्थानुमान' कहा है जो परार्थानुमानमें अतिव्याप्त नहीं है। पर देवमूरिने जो 'हेतुग्रहण और सम्बन्धस्मरणपूर्वक होनेवाले साध्य१. तानुमान दया, स्वार्थपराधभेदात्, स्वाथमुक्तलक्षणम् , पराथं तु तदर्थपगाशवचनाज्जातम् , तद्वचनाप तद्धतुत्वात् । -५० मु० ३१५२, ५३, ५४, ५५, ५६ । २. प्र. क, मा० ३५२-५६ । ३. प्र० र० मा० ३।४८-५२ । ४. अनुमानं द्विप्रकारं स्वार्थ पराथं चेति । तत्र हेतुग्रहणसबन्धस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानं स्वाथामिति । पक्षहंतुवचनात्मकं परार्थमनुमानमुपचारादिति : -प्र० न० त० ३६, १०, २३ । ५. तत् द्विधा स्वार्थ परार्थ च ।। स्वार्थ स्वानिश्चितसाध्याविनाभावैकलक्षणात् साधनात् साध्यशानम् । -हेमचन्द्र, प्रमाणमी० १२१८,६ । यथावतसाधनाभिधानजः परार्थम् । वचनमुपचारात् । -वही, २।१११,२ । ६. स्वाधमुक्तलक्षणम् । -परीक्षामु० ३५४ । ७. प्र० मी० ११२।९, पृ० ३९ । ८. प्र० न० त०३।१०।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy