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________________ अनुमानभेद-विमर्श : ११९ अनुमान भेद-समीक्षाका उपसंहार : निष्कर्ष यह कि पूर्ववत् आदिरूपसे या वीतादिरूपसे अभिमत तीन अनुमानों, संयोगी आदिरूपसे या कारण आदिरूपसे स्वीकृत चार या पांच अनुमानों और मात्रामात्रिक आदिरूपसे अंगीकृत सात अनुमानोंको संख्या अपूर्ण तथा अतिप्रसक्त है।' पर साध्य और साधनम अनिवार्यरूपसे आवश्यक अन्यथानुपपन्नत्व या अन्यथानुपपत्तिके आधारसे अनुमान-संख्या माननेमें न अपूर्णताका दोष आता है और न अतिप्रसक्ति, क्योंकि अन्यथानुपपन्नत्व एक ऐसा व्यापक एवं अव्यभिचारी आधार है, जिसमे सभी प्रकार के समीचीन हेतुओंका समावेश हो जाता है और असमीचीन हेतु ( हेत्वाभास ) उसके द्वारा निरस्त हो जाते हैं । अतः जैन तार्किकोंने इमीको हेतुका निर्दोष एवं प्रधान लक्षण बतलाया है, वैरूप्य और पांचरूप्यको नहीं। पर अन्य नार्किक जितना बल रूप्य और पांच प्य पर देते है उतना अविनाभावपर नहीं। यही जैन ताकिकों और अन्य ताकिकोंके अनुमान-सम्बन्धी निन्नन एवं प्रतिपादनमें मौलिक अन्तर है । स्वार्थ और पगर्थ : यद्यपि कारक विवंचनगे हम इस तथ्यपर पहुँचते है कि अनुमानके प्रधान अंग हेतृका प्रयोजक तत्व एकमात्र अन्यथानुपपन्नत्व है और उसके एक होनेसे उगम आत्मलान करने वाला अनुमान भी एक हो प्रकारका सम्भव है, तथापि वह अन्यथान पन्नव दो दाग गृहीत होता है-( १ )स्व और ( २ ) पर । जब वह स्वके ताग गृहीन होता है तो उसके आधारमे होने वाला अनुमान उस (स्व) की साध्यप्रतिपनिक लिए होता है और वह स्वार्थानुमान कहा जाता है । स्वार्थानमाता किमी परत उपदेन ( प्रतिज्ञादि प्रयोग के बिना स्वयं ही निश्चित अविनाभावी साधनके ज्ञानग गाव्यका ज्ञान करता है । उदाहरणार्थ-जब वह धूमको देखकर अग्निका ज्ञान, रसको चखकर उसके सहचर रूपका ज्ञान या कृत्तिकाके उदयको देखकर एक मुहत्तं बाद होने वाले गकटके उदयका ज्ञान आदि करता है तब उसका वह ज्ञान स्वार्थानमान कहलाता है । और जब वही स्वार्थानुमाता उक्त हेतुओं और साध्योंको बोलकर दूसरोंको उन साध्य-साधनोंकी व्याप्ति ( अन्यथानपपत्ति ) १... अस्यदं कारणं कायं इति मूत्रोपात्ता एव पंचहेतवो लैंगिकांगम् तत्कथं नैया यिकाना वश पिकाणा ,मनुमानसंख्यानियमो न व्यतिप्टेत, तदसमीक्षिताभिधानम्, ततिरक्तानां कृत्तिकोदयादिहतुनां तदंगत्वप्रतिपादनात् । अविनाभाववशाद्धि हेतो. रनुमानांगत्वं न कारणादिरूपतामात्रण, अस्याव्यापकत्वाददिप्रसंगाच्च । अविनाभावम्य तु सकलहंतुकलापव्यापित्वात्तदाभासेभ्यो व्यावृत्तत्वाच्च तद्रशादेव हतार्गमकत्वं प्रतिपत्तव्यम्। या० कु.० ३.१४, पृष्ठ ४६१ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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