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________________ ९८ : जैन तर्कशास में अनुमान-विचार अपने तर्कग्रन्थोंमें अपनाया है । विद्यानन्द जैसे ताकिकमूर्धन्यने तो '....अनुमान विदुर्बुधाः'' कह कर और 'आचार्यों द्वारा उसे कथित बतला कर उसके महत्त्वका भी ख्यापन किया है । (घ) अनुमानका क्षेत्र विस्तार : अर्थापत्ति और अभावका अन्तर्भाव : जैसा कि हम पहले निर्देश कर आये हैं कि परोक्ष प्रमाणके पांच भेद है(१) स्मृति, (२) प्रत्यभिज्ञान, (३) तर्क, (४) अनुमान और (५) आगम । इनके अतिरिक्त अन्य प्रमाणान्तर जैन दर्शनमें अम्युपगत नहीं हैं। विचारणीय है कि जिन उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, सम्भव, ऐतिह्य, निर्णय, प्रातिभ, आर्ष, सिद्धदर्शन और चेष्टाका उल्लेख करके उनके प्रमाण होने अथवा न होने की चर्चा अन्य दर्शनों में की गयी है उनके विषयमें जैन दर्शनका क्या दृष्टिकोण है ? उनका स्वीकृत प्रमाणोंमें अन्तर्भाव किया गया है या उन्हें अप्रमाण कहा गया है ? ___गौतमने प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्दके अतिरिक्त उपमानको भी चौथे प्रमाणके रूपमें स्वीकार किया है। मीमांसादर्शनके भाष्यकार शबरस्वामीने उक्त चार प्रमाणोंके साथ अर्थापत्ति और अभावका भी पांचवें तथा छठे प्रमाणके रूप में प्रतिपादन किया है । सम्भव आदिको किन्होंने प्रमाण माना है, इसका स्पष्ट निर्देश उपलब्ध न्याय एवं दर्शनके ग्रन्थों में नहीं मिलता। पर प्रशस्तपादने उनका उल्लेखपूर्वक यथायोग्य अन्तर्भाव अवश्य दिखाया है। प्रशस्तपादका मत कि चौबीस गुणोंमें जो बुद्धि है, जिसे उपलब्धि, ज्ञान और प्रत्यय नामोंसे कहा जाता है, वह अनेक प्रकारके अर्थोंको जाननेके कारण यद्यपि अनेक प्रकारकी है फिर भी उसे दो वर्गोंमें विभक्त किया जा सकता है-(१) अविद्या और (२) विद्या । अविद्या चार प्रकारकी है-(१) संशय, (२) विपर्यय (३) अनध्यवसाय और (४) स्वप्न । विद्याके भी चार भेद हैं--(१) प्रत्यक्ष, (२) लैंगिक, (३) स्मृति और (४) आर्ष। इनमें प्रत्यक्ष और लैंगिक ये दो १. त० श्लो० १३१३, पृ० १६७ । २. न्या० सू० १।१।३। ३. मी०६० भा० ११११५। ४. प्रश० भा० पृ० १०६-१२९ । ५. वही, पृ० ८३.९३ । ६. वही पृष्ठ ९४ । ७. वही, पृ० ९८, ६ | ८. वही, पृ० १०६ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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