SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७४ वृहदालोयणा मे भवभ्रमण करते आज दिन तक रागद्वेप, विषय, कषाय, पालस, प्रमाद आदि पौद्गलिक प्रपच,परगण पर्याय की विकल्प भूल की, ज्ञान की विराधना की, दर्शन की विराधना की, चारित्र को विराधना की, चारित्राचारित्र की व तप की विराधना की। शुद्ध श्रद्धा, शील, सतोष, क्षमा आदि निज स्वरूप की विराधना की। उपशम, विवेक, सवर, सामायिक,पोसह, पडिक्कमणा, ध्यान, मौन आदि व्रत पच्चक्खान दान, शील, तप वगैरह की विराधना की । परम कल्याणकारी इन वोलो की आराधना पालनादिक मन वचन और काया से नही की, नही कराई और नही अनुमोदी। छह अावश्यक सम्यक् प्रकार से विधि उपयोग सहित अाराधा नही, पाला नही, फरसा नही, विधि उपयोग रहित निरादरपन से किया, किंतु आदर सत्कार भाव भक्ति सहित नही किया । ज्ञान के चौदह, समकित के पाच, बारह व्रत के साठ, कर्मादान के पद्रह, सलेषणा के पाच, एव निन्नाणवे अतिचार मे, तथा १२४ अतिचार ने, तथा साधुजी के १२५ अतिचार मे, तथा बावन अनाचार का श्रद्धानादिक मे विराधना आदि जो कोई अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार आदि सेवन किया, सेवन कराया, अनुमोदना की, जानतां, अजानता मन वचन काया से उनका मुझे धिक्कार धिक्कार वारबार मिच्छामि दुक्कडं । मैने जीव को अजीव सद्दह्या परूप्या, अजीवको जीव सद्दशा परूप्या, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म सह्या + यहां बोलने वाले वर्तमान जो सवत् महिना और तिथि हो वह कहे ।
SR No.010312
Book TitleJain Swadhyaya Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh Sailana MP
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1965
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy