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________________ जैन स्वाध्यायमाला ३७१ . . दूजा पाप मृपावाद-झूठ बोलना । क्रोध के वश, मान के वश, माया के वश, लोभ के वश, हास्य करके, भय के वश, मषा (झठ ) वचन बोला, निंदा विकथा की, कर्कश कठोर मरम वचन वोला, इत्यादि अनेक प्रकार से मृषावाद (झूठ) बोला, बोलवाया और अनुमोदा, उनका मन वचन काया से मिच्छामि दुक्कड । थापनमोसा मैं किया, करी विश्वास घात । परनारी धन चोरिया, प्रकट कह्यो नही जात ।११ मझे धिक्कार धिक्कार वारवार मिच्छामि दुक्कड । वह दिन धन्य होवेगा, जिस दिन सर्व प्रकार से मृषावाद का त्याग करूगा । वह दिन मेरा कल्याणरूप होवेगा ।। तीसरा पाप अदत्तादान-विना दी हुई वस्तु चोरी करके लेना । यह बडी चोरी लौकिक विरुद्ध । अल्प चोरी मकान संबंधी अनेक प्रकार के कर्तव्यो मे उपयोग सहित या बिना उपयोग से । अदत्तादान, मन वचन काया से चोरी की, कराई और अनमोदी तथा धर्म सवधी, ज्ञान दर्शन चारित्र और तप श्री भगवत गरुदेव की बिना आज्ञा किया, उसका मुझे धिक्कार धिक्कार वारंवार मिच्छामि दुक्कडं । वह दिन मेरा धन्य होगा, जिस दिन सर्व प्रकार से अदत्तादान का त्याग करूँगा। वह दिन मेरा परम कल्याण का होवेगा ।३। चौथा मैथुन सेवन करने के लिये मन वचन और काया के योग प्रवर्तीया । नववाड सहित ब्रह्मचर्य नही पाला । नववाड मे अशुद्धपन से प्रवृत्ति हुई । मैंने मैथुन सेवन किया. दूसरो से सेवन करवाया और सेवन करने वाले को अच्छा समझा, उसका मन
SR No.010312
Book TitleJain Swadhyaya Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh Sailana MP
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1965
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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