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________________ (६६) जैन सुवोध गुटका। दुनियां का रहे नहीं दीन का, गुरु का रहे नहीं पीर का ! नर जन्म भी जाये निफल, तू जूवा वाजी छोड़दे ॥ ॥ गुरु पर. लाद ले, कहे चौथमल सुन लो जरा । मान ले श्राराम होगा, जूवा बाजी छोड़दे ॥६॥ Goor . ६६ दगा से दुर्दशा तर्ज-गजल अरे रावण तू धमकी दिखाता किसे ) • दिल अपने में लोचो जरा तो सनम, यह दगा तो किसी का सगा ही नहीं। लो यहां पर भी उसको न चैन पड़े। और वहिश्त में उसको जगह ही नहीं ॥टेर ॥ अव्वल तो रावण ने किया दगा, सती सीता को लेकर लंक गया । मुफ्त में लंक लोने फी गई, और ऐश तो हाथ लगा ही नहीं। दिन० ॥१॥ देखो कंल ने कृष्ण से मारन को, फिया कैसा दया जाने मुल्क तमाम । उसी कृष्ण ने कंश को मार दिया, हुआ कोई शरीफ लगा ही नहीं ॥ २॥ फिर धबल सेठ ने करके दगा, श्रीपाल को मारन ऊंचा चढ़ा। पांच फिसल के लेठ घन्चल ही मरा, श्रीपाल तो डरके भगा ही नहीं ॥ ३॥ दामनखाले करके दगा, वह श्वसुर सेठ खुद ही भरा। चौधमल कहे दिल पाफ रखो यह दगा तो किसी का सगा ही नहीं ॥ ४॥ १०० विषयों का फितूर. (तन्यारो नरभव निष्फल जाय जगत का खेल में ) फ्यों भृल्यो प्रभु को नाम विषय की लहर में ॥टेर ॥ . काम भोग में रहे रंगभीनो, फोनुनाफ की टेरमे । मदछकियो भांगा गटकाचे, फिरे डोलतो गेर में ॥ क्यो० ॥१॥ मुख में
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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