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________________ (३८) जैन सुवोध गुटका । सिरे जूं नाक से शोभे बदन ।। २ ।। कपट से परधन हरे स्वाथे वश अकृत्य करे । अन्याय से जो ना डरे, लिख हाथं से झूठा कथन ॥ ३ ॥ ऐसे अनीतिवान नर, द्विलोक में निंदित बने । व्यवहार भी रहता नहीं, कोई नहीं माने वचन ॥४॥ प्राण गर जाय तो जाय, नीति कभी तजना नहीं। चौथमल कहे इच्छित फले, कीजिये नीति का यतनं ॥ ५॥ . . . . . ५४ सुपुत्र लक्षण, (तर्ज-थारो नरभव निप्फल जाय लगत का खेल में) . . माने मात पिता की केनः पुत्र पुनवान है ॥ टेर।। कुल दीपक कुल चन्द्रमा सरे, कुल में धजा समान है। सरल नम्रता अधिक बदन में, जो पूरा लजावान है ॥ १॥ उपकार माने मात पिता को, रखे सवायो मान है । विद्या वन्त पर गुण ग्राही, बोले सत्य जवान है ॥ २॥ सुख शांति की करे बात जो, कुल मर्यादावान है। कुसंगत में कभी न जावे, इजत का पूरा ध्यान है ।। ३ ।। मुनिराज की करे वन्दगी; कर करुणा दे पुन्यदान है। गुरू प्रसादे चौथमल कहे; मानु दशरथ सुत समान है ।। ४ ॥ . ___ . . ५५ लक्ष्मण से श्रीराम का कहना - (तर्ज वनजारा) कहे राम सुन लक्ष्मण भाई.. कौन जाने. पीड़ पराई ॥ टेर। सीता की शुद्ध कुण लावे; विपता. में नींद नहीं
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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