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________________ (३०) जैन सुबोध गुटका। है श्वासा जहां लगाशारे, दुनियां की झूठी प्रीत ॥ टेर।। ये मात पिता सुत माता, मतलब का सत्र है नाता । विन मतलब दूरा जातारे ॥ दु० ॥१॥ लाखों का माल कमाया, पापों से घड़ा भराया। तेने सुन्दर महल चुनायारे ॥२॥ उमदा पोशाक सजावे, तू इत्तर फुलेल लगावे | सत्र तेरा हुक्म उठावरे ।। ३ ॥ कानों में मोटा मोती, तेरी मग मग दीपे जोती । कई त्रिया मोहित होतीरे ।। ४ ।। फूलों की सेज विछाव, पदमन से प्रीत लगावे । वा पूरो प्रेम जनावरे ॥ ५ ॥ जो अन्तकाल आजावे, भूमि पे तुझे सुलाचे । सब सुन्दर वस्त्र हटायेरे ॥ ६ ॥ तू कहता धन घर मेरा, अब हुआ लदाउ डेरा। चले पुण्य पाप संग तेरारे ॥ ७॥ सर छोड़ी काण मुलाजा, मिली मुख २ धन सब खाजा । तेरा करके मृत्यु काजारे ॥ ८॥ फिर उसी सेज के माई, पर पुरुष को लेत वुलाई। वो तुझको दे विसराईरे ॥६॥ नृप परदेशी की प्यारी, थी शूरी कन्ता नारी । उन्हें दिया पतिको मारीरे ।। १० ।। गुरु प्रसादे चौथमल गावे, सच्चा उपदेश सुनावे, कर धर्म ध्यान सुख पावरे ॥ ११ ॥ यह साल गुरयासी खासा, किया उजैन शहर चौमासा किया लूणमंडी में वासारे॥१२॥ ४४ भावना महत्व (तर्ज-या हसीना वस मदीना करवला में तू न जा) सर्वोपरि हितकारिणी है, भावना भव-नाशिनी । अघ
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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