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________________ जैन सुबोध गुटका। (१७) ललचायनेरे ।। टेर ।। मना पूर्व पुण्य संयोग सेरे । पांचों इंद्रियशरीर निरोग बरे ॥ १॥ मना उत्तम कुल मानव भव सहीरे । गुरु मिलिया निग्रंथ फिर चाहे कहीरे ॥२॥ मनः कुटुंब धन जाणो श्रापणारे । नहीं श्रावेगा साथ झूठो थापणारे ॥६॥ मना भुगतण वेलात एक्लोर। नहीं मानो तो भूत्र देखलोरे ॥४ा ऐसी जापी ने दया धर्म कीजियेरे। पाई लची को लाचो लीजिएरे ॥ ५ ॥ नाथद्वारे साठ साल मायनेो । कियो चौमासो चौथमल पायनेरे ॥६॥ २४ चेतन-प्रतिवोय. (तर्ज-पनजी मुंडे बोले) चेतन थारोरे २ नहीं चने तो यो वांक सारोरे ।टेर ।। प्रारंभ परिग्रह माहे राचे, समझे नहीं मन थारोरे। सागर सेठ सागर में वो । रेगयो धन सारोरे ॥१॥ हुई कुमोदनी द्रह से दूरी, काछवे मुख निकारयोरे । मोह माया में फेर पड्यो, निजचंद विशारबारे ॥२॥ आयु कमल को झाल ममरो, रस पीने हत्यारोरे। ततो किस नींदौ, यो जावे बमारोरे ॥ ३॥ पर वस्तु ने अपनी मानी, योही कियो विगाड़ोरे । सिंहपणो तज गाडर में,क्यो होय सुमारोरे ॥४॥ गुरु प्रसाद चौथमल कहे, जो करणो थने सुधारोरे ! दया धर्म की नाव चैट, उतरो मव पारोरे ॥ ५ ॥ २४ सीता प्रार्थना (तर्ज-चाली) तुरत रघुनाथजी भाकर,बचालोगे तो क्या होगा । नि
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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