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________________ जैन सुबोध गुटका | ( ३३६ ) 4 4 प्रणी, हर वक्त समय यह नांय मिले, कुकर्म तजो उत्तम प्राणी || ढेर || जो कुछ लिखा तकदीर बीच वैसी संपत तुझ श्राय मिली, अब आगे की तजवीज करो मत देर वरो अवसर जाणो ॥ १ ॥ जो वक्त हाथ से जाता है, नहीं लौट कदापि श्राता है, नहीं मिले किसी जगह, मोल, फिर है कैसी अमोलक जिंदगानी || २ || मत जुल्म करो प्रभु से तो डरो क्यों पापों का तुम घट भरो, अच्छे के लिये तेरे इक में समझाते हैं सत्गुरुं ज्ञानी || ३ || धन दौलत और सुत दारा ये मिले प्राय कई पापी को, लेकिन मिलना है मुश्किल दिल सत्संग और प्रभु की वाणी ॥ ४ ॥ उन्नीसो छियासी चौथमल जलगांव बीच चौमासा किया उपदेश दिया फिर श्रोता को सुनो प्रेम लगा अति हित आणी ॥५ । ܚܘܘܘܐ नम्बर ४५६ ' (तर्ज- अर्ज पर हुक्म श्रीमहावीर ) : " मिले अगर बादशाही तो खुदाही आय जाती है, जब आंखें चार होती है तो मोहबत आय जाती है || ढेर || 'देखे कई मालदारों को घूमते बग्गी मोटर में, गरीबों की सुनते हैं नाहीं खुदाही श्राय जाती है ॥ १ ॥ पढ़े लिखे चड़े आलम वकील और चैरिटर, वो भी नहीं दीन को गिनते खुदाही आय जाती है ॥ २ ॥ कलेक्टर सुबा साहेब
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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