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________________ जन सुोध गुटका। ( ३३५) यगा । चाहे चोथमल अज्ञान का, परदा तेरा हट जायगा । ज्ञान पानसे फिर भरमाया नहीं ॥ ५ ॥ नम्बर ४५३. . [तर्ज पूर्ववत् ] : फानि दुनियां में कोई लुभावो मती, नर जन्म को मुफ्त गमावो मती । टेर ॥ दुनियांतो दोजख की तरह है मोमनोके वासते, और जन्नत जानलो तुम काफिरों के वासते । दिलसे खोफ खुदाका हटायो मती ॥ १ ॥ दुनियां तो खती आखरत की, सौचलो दिल में जरा । सामान ले तू पाकवत का,कालं तेरे शिर खड़ा। यहांसे खाली हाथ तुम जावो मती ॥२॥ मुर्दार के मानिंद दुनियां,श्वान चाहता हैं इसे । इनसे मोहबत ना करे वो है खुदा प्यारा जिसे। इन'द्गलों से प्रेम लगावो मती ॥३|दुनियां तो घर फरेब . का, झांसे में कोई आना मती । आखरत है घर खुशी का भूल तुम जाओ मती । सच्ची बात हंसीमें उड़ावो मती ॥४॥ घोढनदी सप्ता: सितीमें कहता तुम को चौथमल । छोड़ गीदड़पन को अयतो वाले आत्मबल । खाली वरून बातों में बितानो मती ॥ ५ ॥
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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