SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन सुवोध गुटका। ( ३०५। अजीव दोनों, नित्य निज स्वभावी । कहे चौथमल समझले, तो कार्य सब सरेगा।॥ ४ ॥ -sx+s नम्बर ४१५ (तर्ज-छोटी बड़ी सैयांए ) - अंए मन मेरारे, प्रभु से ध्यान लगावना ॥ टेक॥ शुभाशुभ जो, वरत-रहे हैं, है यह कर्म स्वभाव । आश्चर्य नहीं लावना ॥ १ ॥ उपादान है, अपना पूर्व का २ नहीं निमित्त का दोष । द्वेष विसरावना ॥२॥ सौख्य रहा नहीं तो, दुख किम रहेसी २ यह भी जावेगा विश्लाय । सन्तोष उर लावना ।। ३॥ जो जो भाव ज्ञानी, देखे है ज्ञान में २ वरतेगा वही वस्तात्र । नाहक पछतावना॥४॥एक अवस्था रहेन किस की २ जैसे कृष्णादि राम। उन्हों पे ध्यान लगावना ॥५॥ गुरु प्रसादे, चौथमल कहे २ शहर बम्बई के माय । पुना से हुआ श्रावना :॥ ६॥ नम्बर ४१६ [तर्ज-श्रानन्द कन्द ऐसा] ... तुम द्वेपता तजोरे, चाहो अगर सुधारा ॥ टेक ॥ है पाप महान् जवर यह, दिल में जरा तो सोचो। ये हाल होंगे आगे, परं भव में वहां तुमारां ॥ १॥ निज स्वार्थ
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy