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________________ ( ३०२ ) जैन सुबोध गुटका | 4" || ढेर || पाप है इस में जबर, हर ग्रन्थ में बतला दिया । कुरान और पुराण देखो, सब जगह जितला दिया । रूप देख के कोई लुभाश्रो मति ॥ १ ॥ जो जो लगे इस कर्म में, उनका फजिता हो गया । प्राण तक भी खो दिए, अपकीर्ति यहां पर बो गए। ऐसी जान कुपंथ में जाओ सती || २ || रावण कीचक पद्म नृप की, देखलो हुई क्या दशा । कुछ नहीं सुझा उन्हें । योवन का छाया था नशा । नर जन्म अमूल्य गमात्र मी || ३ || शीलन्त का यत कर लो तो प्यारो तुम सभी । चौथगल कहे गर्भ में, तुम फिर न आयोग कभी । सत्य शिक्षा को तुम विसरात्र ' मती ॥ ४ ॥ नम्बर ४११ ( तर्ज- मैं तो दासी बनी ) - सिया दूंगा नहीं, मैं तो दूंगा नहीं, रावणं कहे सुन भ्रात विभिक्षण, नहीं तेरे में ज्ञान । करता दुश्मन की कीर्ति और मुझे दबाता यान || १ || नीति और अनीति मैं तो, नहीं जानता भाई | जब तक जान जिस्म में मेरे, तब तक दूंगा नाई || २ || राम लखन दोई भील रण्य के, क्या कर सकते श्राके । नहीं जानते बल वो मेरा, अभी हटाऊं जाके || ३ || होनहार है बुरा जिसी का, सद्बुद्धि कब श्रावे ! गुरु प्रसादे चौथमल यूं, नगर शहर में गावे ||४||
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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