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________________ ( २८६ ) जैन सुबोध गुटका । तूं घूमता धन के लिये ॥ ४ ॥ इसके लिये कर खून चोरी, फेर जावे जेल में । झूठी गवाह देता चिगानी, अएं सनम धन के लिये ॥ ५ ॥ तकलीफ क्या कमती उठाई जिनरक्ष जिनपालने | सेठ सागर प्राणं खोया, समुद्र में धन के लिये || ६ || फिसाद की यह जड़ बताई, माल और औलाद को | कुरान के अन्दर लिखा है, देखलो धन के लिये ॥ ७ ॥ भगवान श्रीमहावीर ने भी, गूल अनरथ का कहा । पुराण में भी क्या लिखा है, फेर इस धन के लिये ॥ ८ ॥ गुरु के प्रसाद से, करे चौथमल ऐसा जिंकर 1 धारले संतोष को तूं, मत मरे धनके लिये ॥ ६ ॥ ३६१ राग परित्याग. [ तर्ज- पूर्ववत् ] मान मन मेरा कहा, तूं राग करना छोड़दे । श्रवा गमन का मूल है, तूं राग करना छोड़दे || टेर ॥ प्रेम श्रीति स्नेह मोहबत, आशक भी इसका नाम है । कुछ सूझता इसमें नहीं, तूं राग करना छोड़दे ॥ १ ॥ लोहकी जंजीर का बंधन नहीं कोई चीज है । ऐसा है बंधन प्रेम का तूं राग करना छोड़दे ॥ २ ॥ सुरासुर और नर पशु, इस राग के फंद में फंसे । फिरते फिरे वे भान हो, तूं राग करना छोड़ दे ॥ ३ ॥ धन कुटुम्ब यौवन जिस्म से, स्नेह " 1 • ·
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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